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कवितावली



स्त्राद्ध कियो गीध को, सराहे फल सबरी के,
सिला-साप-समन, निजाह्यो नेह कोल को॥
तुलसी उराउ होत राम को सुभाव सुनि,
को न बलि जाइ, न बिकाइ बिन मोल को?
ऐसेहू सुसाहेब सों जाको अनुराग न, सो
बड़ाई अभागा, भाग भागो लोभ-लाल को॥

अर्थ—आप रूप, शील और गुण के समुद्र हो, दीन के बन्धु हो, दयानिधान हो, जाननेवालों में श्रेंष्ठ हो, वीर हो और शरणागत-पाल हो। गीध (जटायु) का आपने श्राद्ध किया, शवरी के फल की प्रशंसा की, शिला (अहिल्या) के शाप की शान्ति को और कोल (निषाद) के प्रेम को निबाहा। तुलसीदास! राम के स्वभाव को सुनकर रोमाञ्च होता है। उस पर कौन न बलि जावे और कौन बिना मोल न बिकावै। ऐसे साहेब से भी जिसका प्रेम नहीं है वह बड़ा अभागा है। उसका मन लोभ के वश से चञ्चल हो रहा है और उसका भाग उसे छोड़कर भाग गया है।

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सूर सिरताज महाराजनि के महाराज,
जाको नाम लेत ही सुखेत होत ऊसरो।
साहब कहाँ जहान जानकीस सो सुजान,
सुमिरे कृपालु के मराल होत खूसरो॥
केवट, पषान, जातुधान, कपि, भालु तारे,
अपनायो तुलसी सो धींग धम-धूसरो।
बोल को अटल, बाँह को पगार, दीनबंधु,
दूबरे को दानी, को दयानिधान दूसरो?॥

अर्थ—आप बलवानों के सिरताज और महाराजों के महाराज हैं, आपका नाम लेते ही ऊसर भी अच्छा खेत हो जाता है। दुनिया में रामचन्द्र सा सुजान साहिब कहाँ है कि जिस कृपालु के सुमिरन से खूसट भी हंस हो जाता है। केवट, पत्थर, राक्षस, बन्दर, रीछ सब तारे और तुलसी से धमधूसर धींग (ऊटपटांग मनुष्य) को भी