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उत्तरकाण्ड

पर रीझि (प्रसन्न होकर) रघुनाथजी आपने किसको नियाजा (सब कुछ दिया)?―अर्थात् खोटे और नीचों ही सो न? अथवा किसकी की सेवा पर रीझि आपने अपनाया?―अर्थात् आप बिना होता ही अपनाते हैं।

[ १६३ ]

कौसिक की चलत, पथान की परस पायँ,
टूटत धनुष बनि गई है जनक की।
कोल पसु* सबरी विहंग भालु रातिचर,
रतिन के लालचिन प्रापति मनक की॥
कोटि-कला-कुसल कृपालु! नतपाल! बलि†,
बातहू कितिक तिन तुलसी तनक की।
राय दसरत्थ के समरथ राम राजमनि!
तेरे हरे लोपै लिपि विधि हू गनक की॥

अर्थ―विश्वामित्र की गति चलते ही अर्थात् राम के सङ्ग होते ही, पत्थर की अहिल्या पैरों के परस से, अर्थात् पैर के छू जाने मात्र से, और धनुष के टूटने से जनक की बात बन गई। कोल, पशु (मरीच), शबरी, पक्षी (जटायु), भालु (रीछ), राक्षस जो सदा काम के लोभी होते हैं उनको भी स्वर्ग प्राप्त हुआ अथवा रत्ती भर चाहनेवालों को मत भर मिल गया। हे कोटि कला में कुशल, हे कृपा की मूर्ति, हे शरणागत को पालनेवाले! तुलसीदास को क्यों नहीं पालते? ऐसे छोटे तिनके की क्या बात है अर्थात यह क्या भारी काम है? हे राजा दशरथ के समर्थ सपूत राजमणि रामचन्द्र! तेरे देखने ही से ब्रह्मा जैसे गणित जाननेवाले की भी लिपि (लेख) अर्थात् प्रारब्ध मिट जाती है अर्थात् ब्रह्मा जो एक-एक कर्म गिनकर प्रारब्ध बनाया है ऐसे गणितज्ञ की करनी भी नष्ट हो जाती है।

[ १६३ ]

सिला-साप-पाप, गुह गीध को मिलाप,
सबरी के पास‡ आप चलि गये हौ सो सुनी मैं।



*पाठान्तर―भील।
†पाठान्तर―तन पालतम।
‡पाठान्तर―बाप।