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कवितावली


सेवक सराहे कपिनायक बिभीषन,
भरत सभा सादर सनेह सुर-धुनी मैं॥
आलसी-अभागी-अधी-भारत-अनाथपाल,
साहेब समर्थ एक नीके मन गुनी मैं।
दोष दुख दारिद दलैया दीनबंधु राम,
तुलसी न दूसरो दयानिधान दुनी मैं॥

अर्थ—मैंने तो सुना है कि आपने शिला (अहिल्या) को शाप से निवृत्त किया। गुह-गीध से मिले। शवरी के यहाँ आप स्वयं ही गये। सुग्रीव, विभीषण और भरत, अपने दासों को सभा में आदर सहित आपने जो सराहा और जिसपर आकाश में देवध्वनि हुई वह भी मैंने सुना है। मैंने भली भाँति मन में विचार किया है कि आलसी, अभागे, पापी, दीन और अनाथ के पालक आप एक ही समर्थ साहब हैं। तुलसीदास कहते हैं, कि दोष दुःख और दारिद्रय का नाश करनेवाला दीनबन्धु राम सा दयानिधान दुनिया में दूसरा नहीं है।

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मीत बालि-बंधु, पूत दूत, दसकंध-बंधु
सचिव, सराध कियो* सबरी जटाइ को।
लंक जरी जोहे जिय सोच सो बिभीषन को,
कहौ ऐसे साहेब की सेवा न खटाइ को?॥
बड़े एक एक† तें अनेक लोक लोकपाल‡,
अपने अपने को तौ कहैगो घटाइ को?।
साँकरे के सेइबे§, सराहिबे, सुमिरिबे को,
राम सो न साहिब, न कुमति-कटाइ को॥



*पाठान्तर—साध।
†पाठान्तर—यकायक।
‡पाठान्तर—लोकनाथ ।
§पाठान्तर—साइबो।