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ललात बिललात द्वार द्वार दीन” रहे, यदि “चारि फल चारि ही चनक को” जानते रहे और उन्होंने “जाति के, सुजाति के, कुजाति के” (चांडाल के) “टूक” “पेटागि बस” खाये थे, तो उनकी जाति-पाँँति और गोत्र हो ही क्या सकते थे। हिन्दी-नव-रत्न के लेखकों ने तुलसीदास को ब्राह्मण मानकर उनके कान्यकुब्ज अथवा सरयूपारीण ब्राह्मण होने के विषय में अच्छा तर्क किया है। वह पढ़ने योग्य है। उसमें निर्णय किया गया है कि तुलसीदास कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। उनके ब्राह्मण होने के तीन प्रमाण प्रायः दिये जाते हैं—(१) तुलसीदास ने स्वयं “जायो कुल मंगन” और (२) “सुकुल जन्म” लिखा है तथा (३) तुलसीदास ने ब्राह्मणों की बड़ी प्रशंसा हर जगह की है। अंतिम प्रमाण तो निरर्थक है। क्योंकि भारतवर्ष में, अद्यावधि, कदाचित् ही कोई हिन्दू होगा, जो ब्राह्मणों की बड़ाई न करता हो। फिर तुलसीदास तो वर्णाश्रम-धर्म के बड़े पक्षपाती मालूम होते हैं। ब्राह्मणों की क्यों, उन्होंने तो कुल वर्णाश्रम-प्रणाली की बड़ाई की है और उसके नष्ट हो जाने पर शोक प्रकट किया है। यदि ऐसा कहनेवालों का कहना सत्य है तो अपने कुल को उन्होंने “मंगन कुल” भी तो बतलाया है। कोई ब्राह्मण अपने कुल को “मंगन कुल” न कहेगा। “मंगन” तो ब्राह्मणों को अन्य कुल के लोग अनादरार्थ कहने लगे हैं। कोई ब्राह्मण अपने आपको मंगल-कुल का नहीं कह सकता। ब्राह्मण स्वभावतः कुलाभिमानी होते हैं। ‘सुकुल’ से अर्थ किसी जाति के ‘सु’ (अच्छे) ‘कुल’ से हो सकता है। यदि ऐसे कुल की खोज करना है जो ‘सुकुल’ भी हो, ‘मंगन कुल’ भी और जिसमें “जाति-पाँति” न हो, बल्कि जिस “अपत, उतार” की “छाँह छुए” “जग” “ब्याध बाधको” सहमत है, जिसमें “पेटागि बस” “जाति के, सुजाति के, कुजाति के” “टूक” खाये जा सकते हैं तो ब्राह्मयों में ऐसी जाति का मिलना कठिन है। कौन ब्राह्मण ऐसा होगा जिसे परवा न हो कि “धूत कही, अवधूत कहौ, रजपूत कहौ, जोलहा कहौ कोऊ”? इससे और अधिक प्रमाण इस बात का क्या हो सकता है कि उनकी जाति-पाँँति का कुछ पता न था? कोई उन्हें जुलाहा, कोई राजपूत और कोई अवधूत बताता था। कहीं जगह न मिलने पर मसज़िद तक में उनको सोना पड़ा— “माँगि के खैबो मसीत को सोइबो” −अर्थात् जब उन्हें कोई धर्मशाला इत्यादि में भी घुसने नहीं देता था सब वे मसजिद ही में पड़े रहते थे। जन्म से जिसने सब प्रकार के लोगों के ‘टूक’ खाये हों वह अपने को ‘मंगन-कुल’ का अवश्य बतलावेगा।

कोई-कोई कहते हैं कि तुलसीदास ने अपने लिए अहंकार-रहित होने से, ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है। परन्तु यदि ऐसा होता तो वे हर जगह ऐसा न लिख-