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कवितावली


गीध माना गुरु, कपि भालु माने मौत कै,
पुनीत गीत साके सब साहेब समस्थ* के।
और भूप परखि सुलखि तोलि ताइ लेत,
लसम के खसम तुही पै दसरत्थ के॥

अर्थ—सेवा के अनुकूल सब राजा लोग, कुएँ की तरह, फल देते हैं। जो गुणविहीन होते हैं वे रास्ते चलनेवालों की भाँति प्यासे जाते हैं अर्थात् जैसे कुआँ बिना गुण(रस्सी)वालों का जल नहीं देता और वे प्यासे ही चले जाते हैं वैसे ही गुण-विहीनों का राजा लोग भी आदर नहीं करते। तुलसीदास ने सब लेखे मन में देख लिये। स्वार्थ ही के लिए देवता लोग भी बहुत से धन के देनेवाले होते हैं। गीध को किसने गुरु माना? कपि और रीछ को किसने मित्र माना? यह पवित्र साके (कहावतें) सब समर्थ साहब राम ही के हैं। और सब राजा देख-भालकर तौलकर लखकर ताइकर सेवक बनाते हैं, परन्तु लटे (बहुत कमज़ोर) के रखनेवाले हे दशरथ के लाल! तुम्हीं हो।

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रीति महाराज की निवाजिए जो माँगनो सो,
दोष दुख-दारिद दरिद्र कैकै छोड़िए।
नाम जाको कामतरु देत फल चारि ताहि,
तुलसी बिहाइ कै बबूर रेंड़ गोड़िए॥
जाँचै को नरेस, देस देस को कलेस करै?
दैहैं तौ प्रसन्न ह्वै बड़ो बड़ाई बौंड़िए।
कृपा-पाथनाथ लोकनाथ नाथ सीतानाथ,
तजि रघुनाथ हाथ और काहि ओड़िए?॥

अर्थ—महाराज की यह रीति है कि जिस माँगनेवाले पर कृपा की उसके दोष, दुःख और दारिद्रा को दरिद्र करके छोड़ा अर्थात् नष्ट कर दिया। जिसका नाम ही कल्पतरु है और जो चारों फलों को देनेवाला है क्या उसे छोड़कर तुलसी बबूर और रेंड़ को पाले? राजाओं से कौन माँगे? देश-देश के कलेश करनेवाले हैं अथवा


* पाठान्तर—समर्थ।