पृष्ठ:कवितावली.pdf/१३१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१०५
उत्तरकाण्ड


देश-देश में कौन फिरने का कष्ट करे? प्रसन्न होकर राजाओं ने दिया भी तो सारे जगत् की बड़ाई बढ़ावेंगे अथवा बड़ी बड़ाई से दमड़ी की कौड़ियाँ ही देंगे। कृपा के समुद्र, लोकों के नाथ, सीतानाथ, रघुनाथ के हाथ को छोड़कर और किसकी आड़ ली जावे?

शब्दार्थ—गोड़िए= गोड़ना, ज़मीन को नरम करने के लिए ऊपरी भाग को पलटना। औंड़िए= बौंड़ी, कली (छोटी चीज़), अथवा दमड़ी की कौड़ी, अथवा बौड़ना या बकना।

सवैया
[१६८]

जाके बिलोकत लोकप होत बिसोक, लहैं सुरलोग* सुठौरहि।
सो कमला तजि चंचलता करि कोटि कला रिझवे सुरमौरहि॥
ताको कहाय, कहै तुलसी, तू लजाहि न माँगत कूकुर कौरहि।
जानकीजीवन को जन ह्वै जरि जाउ सो जीह जो जाँचत औरहि॥

अर्थ—जिसके देखने मात्र से लोकपाल विशोक होते हैं और सुरलोक में, अथवा देवताओं को, अच्छी ठौर मिलती है, जिस देवतानों के प्रभु (रामचन्द्र) को कमला (लक्ष्मी) चंचलता छोड़ और कोटि कला करके रिझाती है, तुलसीदास कहते हैं कि उसका कहलाकर तू और जगह कुत्ते की तरह टुकड़े माँगता हुआ शरमाता नहीं है? जानकीनाथ का सेवक होकर वह जीभ जल जावे जो और से याचना करती है।

[१६६]

जड़ पंच मिलै जेहि देह करी, करनी लखु धौं धरनीधर† की।
जन की कहु क्यों करिहैं न सँभार, जो सार करैं सचराचर की॥
तुलसी कहु राम समान को आन है सेवकि जासु रमा घर की।
जग में गति जाहि जगत्पति की, परवाह है ताहि कहा नर की॥

अर्थ—पाँच जड़ पदार्थ मिलाकर देह बनाई, इस धरनीधर (राजा रामचन्द्र) की करतूत को देख। जो सब चराचर की सँभाल करते हैं, सो अपने दास्र की क्यों न करेंगे? तुलसीदास! कहो, राम के बराबर और कौन है जिसके घर की दासी लक्ष्मी है। जिसे जगत्पति की गति है उसे मनुष्य की क्या परवाह है?



*पाठान्तर-सुरलोक।
†पाठान्तर-लघुधा धरणीधर।