पृष्ठ:कवितावली.pdf/१३४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१०८
कवितावली

अर्थ―जिस योनि से उत्पन्न हुआ है उसी में सुख-प्राप्ति के लिए अनेक क्रियाएँ करता है, जिनका वर्णन नहीं हो सकता। माता-पिता आदि अनेक हित हो गये, फिर भी हृदय को जलानेवाली जलन रही। हे तुलसी! अब राम का दास कहाकर चातक ने जो हृदय में धारण किया है तू भी वही धारण कर अर्थात् अनन्य भाव से सेवा कर। सबसे बड़ा जो वेष हंस का है उसे धारण करके बगुले और कौए की बातों को छोड़ दे अर्थात् बगुले की सी मक्कारी और कौए की सी चालाकी को छोड़ दे।

[ १७५ ]

भलि भारत भूमि, भले कुल जन्म, समाज सरीर भला लहिकै।
करषा तजिकै, परुषा वरषा, हिम मारुत घाम सदा सहिकै॥
जौ भजै भगवान सयान सोई तुलसी हठ चातक ज्यों गहिकै।
न तो और सबै विष-बीज बये हर-हाटक काम-दुहा नहि कै।

अर्थ―'भारत की अच्छी भूमि में, अच्छे कुल में जन्म पाकर, समाज और शरीर भी भले पाकर, क्रोध छोड़कर, वर्षा, बर्फ, हवा और घाम सदा सहकर जो चातक की तरह हठ करके भगवान् को गहै―अर्थात् जैसे चातक स्वाती का ही पानी पीता है नहीं तो प्यासा ही रहता है―और उनका भजन करे वही हे तुलसी! सयाना है अन्यथा और सब तो सोने के हल में कामधेनु जोतकर विष का बीज बोना है॥

[ १७६ ]

सो सुकृती, सुचि-मंत, सुसंत, सुजान, सुसील-सिरोमनि स्वै।
सुर तीरथ तासु मनावत आवत, पावन* होत हैं ता तनछवै॥"
गुन गेह, सनेह को भाजन सो, सब ही सों उठाय कहौं भुज द्वै।
सतिभाव सदा छल छाँड़ि सबै तुलसी जो रहै रघुबीर को ह्वै॥

अर्थ―वही धर्मात्मा है, वहीं पवित्र है, वही भला सन्त है, सुजान है, सुशील है और वही शिरोमणि अथवा सुशीलों में शिरोमणि है; देवता और तीर्थ उसके बुलाते ही आते हैं और उसके शरीर के स्पर्श मात्र से तीर्थादिक पवित्र हो जाते हैं; 'गुण का वही घर है, वही प्रेम का पात्र है' यह मैं दोनों भुजा उठाकर कहता हूँ, जो 'सति (सच्चे) भाव' से छल छोड़कर सदा रघुवीर का होकर रहे।


  • पाठान्तर―पाप न, अर्थः―न पाप उसे लगता है, न तात (अहित) उसे ल जाता है।