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उत्तरकाण्ड
[ १७७ ]

सो जननी,सो पिता,सोइ भाइ,सो भामिनि,सो सुत,सो हित मेरो।
सोई सगो,सो सखा,सोइ सेवक,सो गुरु,सो सुर,साहिब,चेरो॥
सो तुलसी प्रिय प्रान समान, कहाँ लौं बनाइ कहौं बहुतेरो।
जो तजि देह को गेह को नेह सनेह सो राम को होइ सबेरो॥

अर्थ—वही माता है, वही भाई है, वही स्त्री है, वही पुत्र है, वही मित्र है, वही सगा है, वही सखा है, वही दास है, वही गुरु है, वही देवता है जो साहब (राम) का दाम है अथवा वही देवता है, वही साहिब है, वही चेरा (नौकर) है। कहाँ तक बहुत बनाकर कहूँ, तुलसी को वह प्राण के तुल्य है, जो घर और देह का मोह छोड़कर जल्दी राम का होवै।

[१७८]

राम हैं मातु,पिता,गुरु,बंधु औ संगी,सखा,सुत,स्वामि,सनेही।
राम की सौंह भरोसो है राम को,रामरग्यो रुचि राच्यो न केही॥
जीयत राम, मुये पुनि राम, सदा रघुनाथहि की गति जेही।
सोई जिये जग में तुलसी, न तु डोलत और मुये धरि देही॥

अर्थ—जिसके राम ही माता, पिता, सुत और बन्धु हैं; वही सङ्गी हैं, वही सखा हैं, वही गुरु, स्वामी और सनेही हैं; जो राम के सन्मुख है, जिसे उन्हीं का भरोसा है, जो राम के रङ्ग में रँगा है और जिसे किसी और की रुचि, (अथवा राम की शपथ खाता हूँ) बिल्कुल नहीं है; जीते राम, मरते राम, जिसे सदा राम ही की गति है; वही हे तुलसी! जगत् में जीवित है और सब मुर्दे देह धारण किये घूमते हैं।

[१७६]

सिय-राम-सरूप अगाध अन्प बिलोचन मीनन को जलु है।
श्रुति रामकथा,मुख राम को नाम,हिये पुनि रामहिं को थलु है॥
मति रामहि सो;गति रामहिं सों,रति राम सों,रामहिं को बलु है।
सबकी न कहैं तुलसी के मते इतना जग जीवन को फलु है॥