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कवितावली

अर्थ―सीता-दाम का अनूप स्वरूप नेत्र–रूपी मछलियों के लिए अगाध जल-रूप है; राम की कथा श्रवण करने को और मुँह में राम नाम का जप और हृदय में राम ही का स्थान है। राम ही से बुद्धि लगी है, राम ही की गति है, राम ही से प्रीति है, राम ही का बल है। सबके बदले तुलसी यही क्यों न कहे कि जीवन का इतना ही फल है अथवा सबकी नहीं कहता अथवा और सब चाहे जो कहा करें परंतु तुलसी के मत में तो जीवन का यही फल है।

[१८०]

दशरथ के दानि, सिरोमनि राम, पुरान-प्रसिद्ध सुन्यो जसु मैं।
नर नाग सुरासुर जाचक जो तुमसों मन भावत पायो न कै*॥
तुलसी कर जोरि करै बिनती जो कृपा करि दीनदयालु सुनैं।
जेहि देह सनेह न रावरे सों असि देह धराइकै जाय जियैं॥

अर्थ―दशरथ के पुत्र, दानियों में श्रेष्ठ, राम का यश पुराणों में प्रसिद्ध है और मैंने भी सुना है। नर और नाग, सुर और असुर, और जाचक कौन ऐसा है जिसने आपसे अपना मन-चाहा नहीं पाया। तुलसी हाथ जोड़कर विनती करते हैं जो दीनदयालु उसे कृपा करके सुनैं―जिस देह को आपसे प्रीति नहीं है ऐसी देह धारण करके ही क्या करैं अर्थात् उससे अच्छा कि जी जाता रहे, मर जावें।

[ १८१ ]

'झूठो है, झूठो है, झूठो सदा जग' संत कहत जे अंत लहा है।
ताको सहै सठ संकट कोटिक, काढ़त दंत, करंत हहा है॥
जान-पनी को गुमान बड़ो, तुलसी के बिचार गँवार महा है।
जानकी-जीवन-जान न जान्यो तो जान कहावत जान्यो कहा है॥

अर्थ―यह जग झूठा है, सदा झूठा है, ऐसा वह सन्त कहते हैं जिनको इसका अन्त (भेद) मिला है, उसके लिए तू हे शठ! करोड़ सङ्कट सहता है और सदा हा-हा करता दाँत निकालता है। (अथवा संसार के लिए करोड़ों सङ्कट सहते हैं और हाहा खाते दाँत निकालते फिरते हैं परंतु मुँह से संसार को झूठा बताते हैं।)


  • पाठान्तर―पावन मैं।