पृष्ठ:कवितावली.pdf/१३८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
११२
कवितावली

[१८४]

सुरराज सो राज-समाज, समृद्धि, बिरंचि, धनाधिप सो धन भो
पवमान* सो, पावक सो, जस सोम सो, पूषन सो, भवभूषन भो॥
करि जोग, समीरन साधि, समाधि कै, धीर बड़ो, बसहू मन भो।
सब जाय, सुभाय कहै तुलसी, जो न जानकीजीवन को जन भो॥

अर्थ―इन्द्र का सा राज-समाज और ब्रह्मा की सी सम्पत्ति और कुबेर सा धन हुआ तो क्या? भव (जगत्) में मानी अथवा पवमान (पवन) सा और अग्नि यम, चन्द्र, सूर्य्य का सा या सबमें भूषण (सिरमौर) हुआ तो क्या? योग-समाधि करके, प्राण साधकर, बड़ा धीर हो गया या मन वश में हो गया तो क्या? तुलसी स्वभाव ही से कहते हैं कि यदि राम का दास न हुमा तो सब व्यर्थ हैं।

[ १८५ ]

काम से रूप, प्रताप दिनेस से, सोम से सील, गनेश से माने।
हरिचंद से साँचे, बड़े विधि से, मघवा से महीप बिषै सुखसाने॥
सुक से मुनि सारद से बकता, चिरजीवन लोमस तेँ अधिकाने।
ऐसे भये तो कहा तुलसी जु पै राजिव-लोचन राम न जाने॥

अर्थ―काम सा रूप, सूर्य्य सा प्रताप, चन्द्र सा शील और गणेश जैसी प्रतिष्ठा (सब से पहिले पूजा) होती है। हरिश्चन्द्र से सत्यवत्का, ब्रह्मा से बड़े, इन्द्र से राजा और सुख पानेवाले, शुक से मुनि, शारदा से सेवक और लोमश से दीर्घायु हुए तो क्या? हे तुलसी! यदि कमल-नयन राम को न भजा।

[ १८६ ]

झूमत द्वार अनेक मतंग जंजीर जड़े मदअंबु चुचाते।
तीखे तुरंग मनोगति चंचल, पौन के गौनहु तेँ बढ़ि जाते॥
भीतर चंद्रमुखी अवलोकति, बाहर भूप खरे न समाते।
ऐसे भये तो कहा तुलसी जो पै जानकीनाथ के रंग न राते॥



*पाठान्तर―भवमान।