[ ] कर कहीं तो अपने को ब्राह्मय लिखते। जो अपने कुल को 'सुकुल' बतला सकता है वह अहंकार-रहित होते हुए भी अपने आपको ब्राह्मध लिखने में न चूकता, बशने कि उसे अपने ब्राह्मण्य होने का पूर्ण ज्ञान होता। तुलसीदास को तो अपने कुल्ल का पता ही न था। वे केवल इतना सुना-सुनाया जानते रहे होंगे कि किसी भले घर की सन्तान हैं, इसी लिए सुकुलता कहा; परन्तु स्पष्ट कह दिया कि हमारी कोई जाति-पाति नहीं है। खेद है, बाबू शिवनन्दन सहाय जैसे विद्वान ने, जिन्होंने तुलसीदासजी की निष्पक्ष वृहत् जीवनी लिखी है, यह आदि ही से मान लिया कि वे ब्राह्मण थे। वे लिखते हैं कि "गोस्वामीजी ने जन्म ग्रहण कर किसी ब्राह्मण-कुल को ही पवित्र किया था, इसमें तो सन्देह नहीं।” यह कहकर फिर उन्होंने यह निश्चय करने की चेष्टा की है कि वे कान्यकुब्ज थे या सरयूपारीण। हमें तो कवितावली पढ़कर तुलसीदास के 'ब्राह्मणकुल' में उत्पन्न होने में बड़ा सन्देह हो गया। जन्म ही से जिसने “जाति के कुजाति के प्रजाति के दूक खाकर अपना पेट भरा हो वह अपने आपको "जायो कुल मंगना अवश्य कहेगा। दोनो से यही ज्ञात होता है कि तुलसीदास को अपनी जाति का कुछ पता स्वयं न था। अत: अब उसकी तलाश शश-विषाण की सी खोज है। तुलसीदास की जाति के सम्बन्ध में निम्नलिखित प्रमाण दिये जाते हैं- (अ) काष्ठजिह्वा स्वामी--"तुलसी पराशर गात्र दुवे पत्यौजा के।" (पा) तुलसीराम अगरवाला-कृत्त उर्दू 'भक्तमाल'. कान्यकुब्ज होना बताते हैं। (इ) राजा प्रतापसिंह कृत 'भक्तकल्पद्रुम' " (ई) ठाकुर शिवसिंह । (उ) पण्डित रामगुलाम द्विवेदी सरयूपारीय मानते हैं । (अ ) डाकृर ग्रियर्सन __इन सबकी युक्तियों और उनके खण्डन के लिए बाबू शिवनन्दन सहाय कृत श्रीगोस्वामी तुलसीदास देखना चाहिए। बाबू साहब ने इस झंझट को मिटाने के लिए एक नई युक्ति निकाली है कि सरवरिया ब्राह्मण भी अपने आपको कान्यकुब्ज कहते हैं, इसलिए इनको सरवरिया कान्यकुब्ज कहना चाहिए। हमारी समझ में तो यह सब झंझट मात्र है। जब तक कोई पूरा प्रमाण किसी एक बात के निश्चय करने को न मिले, तुलसीदास को किसी जाति का न मानकर इनके लिखने को हो सार्थक करना चाहिए ।