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कवितावली
[११४]

को भरिहै हरि के रितये, रितवै पुनि को हरि जौ भरिहै।
उथपै तेहि को जेहि राम थपै, थपिहै तेहि को हरि जौ टरिहै?॥
तुलसी यह जानि हिये अपने सपने नहिं कालहुँ तेँ डरिहै।
कुमया कछु हा न न औरन की जोपै जानकीनाथ मया* करिहै॥

अर्थ—हरि के देने पर कौन (खज़ाना) खाली कर सकता है और हरि के रीते करने पर कौन भर सकता है? उसे कौन उखाड़ सकता है जिसे राम जमावें, उसे कौन जमा सकता है जिसे राम उखाड़ें। तुलसी यह मन में जानकर काल से स्वप्न में भी नहीं डरेगा। जो रामचन्द्र कृपा करेंगे तो औरों के किये कुछ भी हानि नहीं हो सकती।

[१६०]

ब्याल कराल, महाविष, पावक मत्त गयंदहु के रद तोरे।
साँसति संकि चली, डरपै हुते किंकर, ते करनी मुख मारे॥
नेकु बिषाद नहीं प्रहलादहि, कारन केहरि के बल हो रे।
कौन की त्रास करै तुलसी, जो पै राखिहैं राम तो मारिहै को रे?॥

अर्थ—बड़े विषवाले विकराल साँप, भोषण विष, अग्नि और मस्त हाथियों के दाँत तोड़े। साँँसत (ताड़ना) भी शङ्का करती (स्वयं डरती हुई) चली, डरे हुए नौकरों ने भी बुरी करनी (कर्म) से मुँँह मोड़े। अर्थात् राम के दास से विमुख होने से उन्हें भी शङ्का हुई और उसके साथ बुरी करनी करना उन्होंने छोड़ दिया। लेकिन प्रह्लाद को ज़रा भी विषाद (अफ़सोस) न हुआ, क्योंकि वह नृसिंह के बल हो रहे थे। तुलसी किसको डरे? यदि राम राखेंगे तो उसे कौन मारेगा?

[१६१]

कृपा जिनकी कछु काज नहीं, न अकाज कछू जिनके मुख मारे।
करैँ तिनकी परिवाहि ते जो बिनु पूँँछ विषान फिरैँ दिन दौरे॥
तुलसी जेहि के रघुवीर से नाथ, समर्थ सु सेवत रीझत थोरे।
कहा भव-भीर परी तेहि धौं, बिचरै धरनी तिन सो तिन तोरे॥


*पाठान्तर—कृपा।