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उत्तरकाण्ड

अर्थ—जिनकी कृपा से कुछ काम नहीं निकलता, और जिनके मुँँह मोड़ने से कुछ अकाज नहीं होता उनकी कौन परवाह करे? बही जिसके न सींग है न पूँछ, और दौड़ा दौड़ा फिरता है। हे तुलसी! जिसके राम से नाथ हैं, जो थोड़े ही में प्रसन्न हो जाते हैं, उस पर क्या संसार की भीर पड़ी है? इससे पृथ्वी पर उनसे, जिनका वर्णन ऊपर है, नाता तोड़े हुए क्यों न फिर अर्थात् स्वतंत्र क्यों न रहे?

[ १६२ ]

कानन,भूधर,बारि,बयारि,महाविष,व्याधि,दवा,अरि घेरे।
संकट कोटि जहाँ तुलसी, सुत मात पिता हित बंधु न मेंरे*॥
राखिहैं राम कृपालु तहाँ, हनुमान से सेवक हैं जेहि करे।
नाक, रसातल, भूतल में रघुनायक एक सहायक मेरे॥

अर्थ—वन, पहाड़, पानी और हवा में और जहाँँ विष, व्याधि, अग्नि और वैरी घेरते हैं, जहाँ सैकड़ों सङ्कट हैं, हे तुलसी! और न भाई, न माता, न पिता, न हितू हैं, वहाँ रामचन्द्र ही रक्षा करेंगे, जिनके हनुमान् से सेवक हैं। आकाश, पाताल, पृथ्वी सब में एक रघुनाथ ही मेरे सहायक हैं।

[१६३]

जबै जमराज रजायसु तेँ मोहि लै चलिहैं भट बाँधि नटैया।
तात न मात न स्वामि सखा सुत बंधु बिसाल विपत्ति बँटैया॥
साँसति घोर, पुकारत आरत, कौन सुने चहुँ भोर डटैया।
एक कृपालु तहाँ तुलसी दसरत्य के नंदन बंदि कटैया॥

अर्थ—जब यमराज के दूत उनकी आज्ञा से मुझे गला बाँधकर ले चलेंगे तब भाई, माता, स्वामी, सखा कोई विपत्ति का बाँटनेवाला न मिलेगा। जब घोर सज़ा मिलेगी और मैं दीन होकर पुकारूँगा तब कोई सुननेवाला न होगा, चारों ओर तो डाँटनेवाले ही होंगे। वहाँ एक रामचन्द्र ही कृपालु, दशरथ-नन्दन बेड़ी के काटनेवाले होंगे।


*पाठान्तर—मेरे।