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उत्तरकाण्ड

कै यह हानि सहौ बलि जाउँ, कि मोहुँ करो निज लायक ही को।
आनि हिये हित जानि करो ज्यों, हौं* ध्यान धरों धनुसायक ही को॥

अर्थ―दुनिया कहती है और मैं भी कहता हूँ कि चाहे खोटा हूँ चाहे खरा, रामचन्द्र ही का हूँ। आपका तो छोटा पन है (आपके लिए मुझ-से नीच की सहायता करना छोटापन है अथवा आपका दास बुरा हो इसमें आपका छोटापन है)। परन्तु मेरा यश मुझे सुखदायक है अर्थात् उतने बड़े साहब का दास हूँ अथवा मेरा यश वो आपको सुखदायक है अर्थात् अपने दास के यश से आप प्रसन्न होते हैं परन्तु उसे अपने लायक तो कीजिए। यह हानि सहो या मुझे भी अपने लायक करो। यह मन में समझकर और मेरा हित जानकर ऐसा करो कि जिसमें मैं धनुषपाणि रामचन्द्रजी का ध्यान धरूँ।

[ २०२ ]

आपुहौं† आपको नीके कै जानत, रावरो राम! बढ़ायो गढ़ायो।
कीर ज्यों नाम रटै तुलसी सो कहै जग जानकीनाथ पढ़ायो॥
सोई है खेद जो बेद कहै, न घटै जन जो रघुबीर बढ़ायो।
हौं तो सदा खर को असवार, तिहारोई नाम गयंद चढ़ायो॥

अर्थ―मैं खुद ही अपने को अच्छी तरह समझता हूँ कि हे राम! आप ही का बढ़ाया गढ़ाया हुआ हूँ। तुलसी तोते की तरह राम राम रटता है, उसे दुनिया कहती है कि जग में राम ने पढ़ाया है। यही खेद है (कि आपका नाम तोते की भाँति रटता हूँ, मन में भक्ति नहीं है)। वेद भी कहता है कि जिस मनुष्य को राम ने बढ़ाया है वह नहीं घट सकता। मैं वैसे तो गदहे पर सवार होने लायक था परन्तु आपके नाम ने हाथी पर चढ़ाया है (इसलिए मुझे केवल नाम के वास्ते नहीं बल्कि सचमुच भक्त हो जाना चाहिए)।

घनाक्षरी

[२०३]

छार तेँ सँवारि कै पहार हू तेँ भारी कियो,
गारो भयो पंच में पुनीत पच्छ पाइकै।



*पाठान्तर―चाहो।
†पाठान्तर―आपुहि