पृष्ठ:कवितावली.pdf/१४६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२२०
कवितावली


हौ तौ जैसो तब तैसो अब, अधमाई कै कै
पेट भरौं राम रावरोई गुन गाइकै॥
आपने निवाजे की पै कीजै लाज, महाराज!
मेरी ओर हेरिकै न बैठिए रिसाइकै।
पालिकै कृपालु ब्याल-बाल को न मारियै
औ काटियै न, नाथ! विषहू को रूख लाइकै॥

अर्थआपने मुझे ख़ाक से ऐसा सँभाला (उठाया) कि पहाड़ से भी भारी कर दिया, फिर मैं आपका पवित्र पक्ष पाकर पंचों में भारी हुआ अथवा नये पंख पाकर पाँचों इन्द्रियों में फँसकर गारे की तरह वहीं फँस गया। मैं तो जैसा अधम तब था वैसा ही अब भी हूँ। परन्तु हे राम! आप ही का गुन गाकर पेट भरता हूँ। जो आपने कृपा की है, हे महाराज! उसकी लाज रक्खो और मेरी ओर से ख़फा़ होकर न बैठ रहो। हे कृपालु, साँप के बच्चे को भी पालकर न मारिए और विष के वृक्ष को भी अपने आप लगाकर न उखाड़िए।

[२०४]


बेद न पुरान गान, जानौं न विज्ञान ज्ञान,
ध्यान, धारना, समाधि, साधन प्रबीनता।
नाहिंन बिराग, जोग, जाग भाग तुलसी के,
दया-दान-दूबरो हौं, पाप ही की पीनता॥
लोभ-माह-काम-कोह-दोष कोष मोसो कौन?
कलि हू जो सीख लई मेरियै मलीनता।
एक ही भरोसो राम रावरो कहावत हौं,
रावरे दयालु दीन बन्धु, मेरी दीनता॥


*भोग।