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कवितावली


राम को कहाइ, नाम बेंचि बेंचि खाइ,
सेवा संगति न जाइ पाछिले को उपखानु है॥
तेहू तुलसी को लोग भलो भलो कहै,
ताको दूसरो न हेतु, एक नीके कै निदानु है।
लोकरीति बिदित विलोकियत जहाँ तहाँ,
स्वामि के सनेह स्वान हूँ को सनमानु है॥

अर्थमेरा वचन विकार-युक्त (कड़ा) है, बहुत खुवार (बुराई) करनेवाला है अथवा करतब भी बुरा है, और मन विचारहीन तथा कलियुग के मैल (पाप) का घर है। राम का कहाता हूँ और नाम बेंच बेंच खाता हूँ। सजनों की सेवा-संगति में नहीं जाता हूँ, वही पिछली कहानी चली आती है अर्थात् अपनी टेव नहीं छोड़ता हूँ। उस तुलसी को भी लोग भला कहते हैं। उसका सिवाय इसके और दूसरा कारण नहीं है कि उसे एक अच्छे का सहारा है। जगत् की यह रीति ज़ाहिर है और जगह जगह दिखाई भी पड़ता है कि जहाँ स्वामी का प्रेम होता है वहाँ उसके कुत्ते का भी सन्मान होता है।

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स्वारथ को साज न समाज परमारथ को,
मासों दगाबाज दूसरो न जगजाल है।
कै न आयों, करौं, न करौंगो करतूति भली,
लिखी न बिरंचि हू भलाई भूलि भाल है॥
रावरी सपथ, राम! नाम ही की गति मेरे,
इहाँ झूठो झुठो सो तिलोक तिहूँ काल है।
तुलसी को भलो पै तुम्हारे ही किये, कृपालु॥
कीजै न बिलंब, बलि, पानी भरी खाल है॥

अर्थन तो स्वार्थ की सामग्री है और न परमार्थ की। मुझसा इस जग-जाल में दूसरा दगा़बाज़ कोई न होगा। न मैंने नेकी की है, न करता हूँ और न करूँगा। ब्रह्मा ने ही भूलकर भी भलाई मेरे भाग्य में नहीं लिखी है। आपकी कसम मेरे राम-


*पाठान्तर—मलीभला