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उत्तरकाण्ड


नाम ही की गति है अन्यथा जो यहाँ झूठा है वह तीनों लोक और तीनों काल में सदा झूठा है। अर्थात् राम की शरण मुँँह से कहता हूँ परन्तु हृदय में नहीं लाता। तुलसी का भला आपही के कहने से होगा। हे कृपालु नाथ! अब देर न कीजिए, यह देह पानी भरी मशक के समान है (न मालूम कप फट जावे)।

[२०८]


राग को न साज न बिराग जोग जाग जिय,
काया नहिं छाँड़ि देत ठाटिबो कुठाट को।
मनो-राज करत अकाज भयो आजु लगि,
चाहै चारु चोर पै लहै न टूक टाट को॥
भयो करतार बड़े क्रूर को कृपालु, पायो
नाम प्रेम-पारस हौँ लालची बराट को।
तुलसी बनी है राम रावरे बनाये, ना तौ,
धोबी कैसो कूकुर, न घर को न घाट को॥

अर्थ—न राग की ही सामग्री है; न मन में वैराग्य, न योग, न यज्ञ है। यह शरीर बुरे कामों का प्रबन्ध करना नहीं छोड़ता। आज तक मन की भावनाएँ करते अकाज हो गया। सुन्दर वस्र की इच्छा करता है परन्तु पाता टाट का टुकड़ा भी नहीं। ब्रह्मा बड़े क्रूर, पर कृपालु हुए कि मुझसे बड़े लालचो को पारस नाम (राम) मिल गया। अथवा ब्रह्मा ने मुझ से बड़े क्रूर पर कृपा की कि मुझ से कौड़ी के लालची को नाम-रूपी पारस मिल गया। हे राम! तुलसी की तुम्हारे बनाये बनी है। नहीं तो धोबी का कुत्ता है न घर का न घाट का।

[२०६]


ऊँचो मन, ऊँची रुचि, भाग नीचा निपट ही*,
लोक-रीति-लायक न, लंगर लबारु है।
स्वारथ अगम, परमारथ की कहा चली,
पेट की कठिन, जग जीव को जबारु है॥


*पाठान्तर—निपटहि