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कवितावली


चाकरी न आँकरी, न खेती, न बनिज भीखा,
जानत न कूर कछु किसव कबारु है।
तुलसी की बाजी राखी राम ही के नाम,
न तु भेंट पितरन कोँ न मूड़ हू में बारू है॥

अर्थ—मन तो ऊँचा है और रुचि बढ़ी हुई है परन्तु भाग छोटा है। दुनिया की रीति के लायक नहीं, खोटा है और झूठा है। स्वार्थ ही कठिन है, परमार्थ की क्या चर्चा; पेट ही के लाले हैं। संसार भी प्राणों का जन्जाल हो रहा है। न नौकरी किसी की है, न खेती है, न व्यापार, न भीख ही माँगना जानता हूँ और न कोई अन्य उद्यम है। तुलसी की बात राम-नाम ही ने रक्खी है, नहीं तो जल्दी पितरों से भेंट होती अर्थात् मर जाता और सिर में एक बाल न रहता (इतना मारा जाता) अथवा न पितृकर्म ही कर सकता, न देवकर्म ही के लिये सिर में बाल (धन) है।

[२१०]


अपत, उतार, अपकार को अगार जग,
जाकी छाँह छुए सहमत ब्याध बाधको।
पातक पुहुमि पालिवे को सहसानन सो,
कानन कपट को, पयोधि अपराध को॥
तुलसी से बाम को भी दाहिनो दयानिधान,
सुनत सिहात सम सिद्ध साधु साधको।
राम नाम ललित ललाम किये लाखनि को
बड़ो कूर कायर कपूत कौड़ी आध को॥

अर्थ—बड़ा पतित है, जग में अपकार का घर है, जिसकी छाँह छू जाने से ब्याध और बधिक (कसाई) भी संकोच करते हैं। पृथ्वी में पाप की रक्षा करने को शेष का सा है। कपट का वन और अपराध का समुद्र है। तुलसी ऐसे क्रूर को दयानिधि दहिने हुए। [यह खबर पाकर ] सब सिद्ध "साधु" "साधु' कहकर अर्थात् "भला" कहकर उसकी सराहना करते हैं; अथवा सब सिद्ध, साधु (संन्यासी) और साधक (योगी जन) सराहना करते हैं अथवा सब उसकी साधु, सिद्ध वा साधक (योगी) कहकर तारीफ़ करते हैं। राम-नाम लाखों को बड़ा करता है, वे चाहे जैसे