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कवितावली


गिरो हिये हहरि, ‘हराम हो हराम हन्यो’
हाय हाय करत परी गो कालफँग में॥
तुलसी बिलोक ह्वै त्रिलोकपति-लोक गयो
नाम के प्रताप, बात बिदित है जग में।
सोई रामनाम जो सनेह सों जपत जन
ताकी महिमा क्यों कही है जाति अगमै॥

अर्थ—अन्धा, नीच, मूर्ख और जरा (बुढ़ापे) से जर्जर (टूटे हुए) (बुड्ढे) यवन (मुसलमान) कों शूकर के बच्चे ने रास्ते में ढकेल दिया। वह हृदय में घबराकर गिरा, हाय हाय करने लगा कि हराम, हराम (सुअर के बच्चे ) ने मारा। ऐसी ही दशा में काल के फन्दे में पड़ गया। हे तुलसी! सो शोक-रहित होकर त्रिलोक- पति के लोक को गया, सो केवल नाम (राम) ही के प्रताप से, यह बात जगत् में विदित है। वही रामनाम है जिसे दास बड़े प्रेम से जपते हैं और जिसकी अथवा जो दास उसी रामनाम को प्रेम-पूर्वक जपते हैं उनकी महिमा वेद से भी नहीं गाई जाती।

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जाप की न, तप खप कियो न तमाइ जोग,
जाग न, बिराग त्याग तीरथ न तनको।
भाई को भरोसो न, खरोसो बैर बैरी हू सों,
बल अपनो न, हितू जननी न जन को॥
लोक को न डर, परलोक को न सोच,
देव सेवा न सहाय, गर्ब धाम को न धन को।
राम ही के नाम तें जो होइ सोइ नीको लागै,
ऐसोई सुभाव कछु तुलसी के मन को॥

अर्थ—मैंने न जप किया है, न तप सहन किया, न योग किया, न यज्ञ, न वैराग्य, न त्याग, न तनिक (ज़रा भी) तीर्थ ही किया। न भोई से भरोसा है, न बैरी से बड़ा बैर, और न अपना बल है। न माता पिता का प्रेम है, न दुनिया का डर है, न परलोक का शोच, न देवता की सेवा की है जिससे उनकी सहायता हाती, न धाम का