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कवितावली


तुलसी तिहारो मन बचन करम, तेहि
नाते नेह-नेम निज ओर तें निबाहिए।
रंक के निवाज रघुराज राजा राजनि के,
उमरि दराज महाराज तेरी चाहिए॥

अर्थ—यह बात संसार में ज़ाहिर है कि ज़माना ऐसा बुरा हो गया है कि कामधेनु वेचकर लोग गधी मोल लेते हैं। हे दयालु! ऐसे कराल कलियुग में भी तेरे नाम के प्रताप से तीनों ताप देह को नहीं जलाते हैं। हे राम! तुलसी तुम्हारा मनसा, वाचा, कर्मणा दास है, इस नाते से भी अपनी ओर से प्रीति निवाहिए। हे दरिद्रों पर कृपा करनेवाले रघुराज! हे राजाओं के राजा! हे महाराज! तुम्हारी उमर बड़ो चाहिए।

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स्वारथ सयानप, प्रपंच परमारथ,
कहायो राम रावरो हौं, जानत जहानु है।
नाम के प्रताप, बाप! आज लौं निबाही नीके,
आगे को गोसाईं स्वामी सबल सुजानु है॥
कलि की कुचालि देखि दिन दिन दूनी देव!*
पाहरूई चार हेरि हिय हहरानु है।
तुलसी की, बलि, बार बार ही सँभार कीबी
जद्यपि कृपानिधान सदा सावधानु है॥

अर्थ—स्वार्थ में बुद्धिमत्ता और प्रपञ्च में परमार्थ है, परन्तु मैं आपका कहाता हूँ— यह दुनिया में ज़ाहिर है। हे बाप! आपके नाम के प्रताप से भाज तक तो अच्छी रही और आगे के लिए स्वामी बुद्धिमान् और बलवान् है। कलियुग की कुचाल को देखकर प्रतिदिन दूना पहरा दूँँगा, क्योंकि चोरों को देखकर मन डरता है अथवा हे देव! काल की कुचाल को दिन-दिन दूनी देखकर और चौकीदार को ही चोर जानकर हृदय में भय होता है। हे महाराज! तुलसी की बार-बार सँभाल करना, यद्यपि आप सदा ही सावधान हैं (तथापि याद दिलाता हूँ)।


*पाठान्तर—देव।