पृष्ठ:कवितावली.pdf/१५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१३३
उत्तरकाण्ड
[ २२३ ]

दिन दिन दूनो देखि दारिद दुकाल दुख
दुरित दुराज, सख सुकृत सकोचु है।
माँगे पैंत पावत प्रचारि पातकी प्रचंड
काल की करालता भले को* होत पोचु है॥
आपने तौ एक अवलंब अंब डिंभ ज्यों†,
समर्थ सीतानाथ सब संकट-बिमोचु है।
तुलसी की साहसी सराहिए कृपालु, राम!
नाम‡ के भरोसे परिनाम को निसाचु है॥

अर्थ―यह देखकर कि दिन-दिन दुनिया में (दूना) दारिद्रर बढ़ता है, अकाल पड़ता है, दुःख और पाप जल्दी-जल्दी बनता है, सुख और पुण्य घटता है, पापीजन काल की करालता से माँगे पैत (दाँव) पाते हैं और भले को पोच (बुरा) होता है; जैसे बच्चे को एकमात्र सहारा माँ का होता है वैसे ही मुझे तो एक ही अवलम्ब समर्थ सीतानाथ का है जो सङ्कट से छुड़ानेवाले हैं। हे कृपालु राम! तुलसी के साहस को सराहिए कि उसे नाम के भरोसे पर परिणाम का कुछ सोच नहीं है।

[ २२४ ]

मोह-मद-मात्यो, रात्यो कुमति-कुनारि सों,
बिसारि बेद लोक-लाज, आँकरो अचेतु है।
भावै सो करत, मुँह आवै सो कहत कछु,
काहू की सहत नाहिँ सरकस हेतु है॥
तुलसी अधिक अधमाई हु अजामिल तेँ
ताहू में सहाय कलि कपट-निकेतु है।



*पाठान्तर―पै।
†पाठान्तर―अम्बई भन्यौ।
‡पाठान्तर―राम।