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उत्तरकाण्ड
[ २२६ ]


बरन-धरम गयो, आस्त्रम निवास तज्यो,
त्रासन चकित सो परावनो परो सो है।
करम उपासना कुबासना बिनास्यो, ज्ञान
बचन, बिराग बेष जगत हरो सो है॥
गोरख जगायो जोग भगति भगायो लोग,
निगम नियोग ते सो केलि ही छरो सो है।
काय मन बचन सुभाय तुलसी है जाहि
रामनाम को भरोसो ताहि को भरोसा है॥

अर्थ— वर्ण धर्म गया, और सब आश्रम के लोगों ने अपना स्थान (पद) छोड़ दिया, ड से चकित होकर परावना (भगी) सी पड़ी है। काम, उपासना (भक्ति) और ज्ञान की बुरी इच्छाओं ने कर्म आदि का नाश किया। वचन (बातों में) वैराग्य है, और वेश ने मानो जगत् को हर लिया है। गोरख ने योग जगाया सो राम की भक्ति वेद की आज्ञा से, लोगों को भगाया, सो मानो खेलही में छला है। शरीर-मन-वचन से सहज ही से, हे तुलसी! जिसे रामनाम का भरोसा है, उसी का भरोसा (सच्चा) है।

सवैया
[ २२७ ]

बेद पुरान बिहाइ सुपंथ कुमारग कोटि कुचाल चली है।
काल कराल नृपाल कृपालन राज-समाज बड़ोई छली है॥
बर्न-विभाग न आस्त्रम-धर्म, दुनी दुख-दोष-दरिद्र-दली है।
स्वारथ को परमारथ को कलि राम को नाम-प्रताप बली है॥

अर्थ— वेद और पुराण के सन्मार्ग को छोड़कर करोड़ों कुमार्ग चले हैं, कराल काल है, राजा दयालु नहीं है और राजसमाज बड़ा छली है। वर्ण-विभाग नहीं रहा, न अब आश्रम धर्म है। दुःख, दोष और दरिद्र ने दुनिया को नष्ट कर डाला। स्वार्थ और परमार्थ के लिए रामनाम बड़ा बलवान् है।