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कवितावली

[ २२८ ]

न मिटै भवसंकट दुर्घट है तप तीरथ जन्म अनेक अटो।
कलि में न विराग न ज्ञान कहूँ सब लागत फोकट झूँठ जटो॥
नट ज्यों जनि पेट-कुपेटक कोटिक चेटक कौतुक ठाट ठटो।
तुलसी जो सदा सुख चाहिय तो रसना निसि-बासर राम रटो॥

अर्थ―संसार का सङ्कट बड़ा कठिन है, मिटता नहीं, चाहे कितना ही तप क्यों न करो और तीर्थ में अनेको जन्म तक क्यों न फिरो। कलियुग में न कहीं वैराग्य है, न ज्ञान, सब फिज़ूल भूठ से जड़ा हुआ देखने मात्र ही को है। नट की भाँति पेट के पिटारे के लिए करोड़ों चेटक और तमाशों का ठाट मत रचो। तुलसी कहते हैं जो सदा सुख चाहिए तो जीभ से दिन-रात रामनाम रटो।

[ २२९ ]

दम दुर्गम, दान दया मखकर्म सुधर्म अधीन सबै धन को।
तप तीरथ साधन जोग बिराग सों होइ नहीं दृढ़ता तन को॥
कलिकाल कराल में, राम कृपालु! यहै अवलंब बड़ो मन को।
तुलसी सब संजम-हीन सबै, एक नाम अधार सदा जन को॥

अर्थ―दम, दान, दया, यज्ञ―ये सब काम मुश्किल हैं, सब सत्-धर्म धन के अधीन हैं। तप, तीर्थ, साधन, योग, वैराग्य बनता नहीं है। देह में इतनी दृढ़ता नहीं है। परन्तु कराल कलियुग में यही मन को बड़ा भरोसा है कि राम दयालु हैं। तुलसी के कोई संयम नहीं है। इस दास को सदा नाम ही का आचार है।

[ २३० ]

पाइ सुदेह बिमोह-नदी-तरनी लही, करनी न कछू की।
राम-कथा बरनी न बनाइ, सुनी न कथा प्रहलाद न ध्रू की॥
अब जोर जरा जरि गात गयो, मन मानि गलानि कुबानि न मूकी।
नीके के ठीक दई तुलसी, अबलंब बड़ी उर आखर दू की॥

अर्थ―सुन्दर देह पाकर बेखबर रहा, नदी में तरने को नौका न पाई, अथवा मोह की नदी में सुन्दर देह-रूपी नौका पाई, परंतु कुछ करनी न की, न कुछ