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कवितावली

[ २३३ ]

जीव जहान में जायो जहाँ सो तहाँ तुलसी तिहुँ दाह दहो है।
दोस न काहू, कियो अपनो, सपनेहु नहीं सुख-लेस लहो है॥
राम के नाम तें होउ से होउ, न सोऊ हिये, रसना ही कहो है।
कियो न कछू, करिबो न कछू, कहिबो न कछु, मरिबोई रहा है॥

अर्थ―तुलसीदास कहते हैं कि संसार में जहाँ जीव पैदा होता है वहीं तीनों दाह (ताप) से जला करता है, इसमें किसी का दोष नहीं है क्योंकि सब अपना ही किया हुआ है (पहले जन्मों के किये कर्मों का फल है)! मैंने तो सपने में भी लेश-मात्र भी सुख नहीं पाया। एक राम का नाम लेता हूँ जो हो सो हो, परन्तु राम- नाम भी मुँह से ही लेता हूँ, मन में वह भी नहीं लाता हूँ, न कुछ मैंने किया है, न कुछ करना है, न कुछ कहना है, बस मरना ही बाक़ी रह गया है।

[ २३४ ]

जीजै न ठाँउ, न आपन गाँउ, सुरालयहू को न संबल मेरे।
नाम रटौं, जम बास क्यों जाउँ, को आइ सकै जम किंकर नेरे?॥
तुम्हरो सब भाँति, तुम्हारिय सौं, तुम्हही, बलि, ही मोकों ठाहरु हेरे।
बैरष बाँह बसाइए पै, तुलसी धरु ब्याध अजामिल खेरे॥

अर्थ―जीने के लिए मेरे पास कोई जगह नहीं है, न अपना कोई गाँव है, स्वर्ग में जाने के लिए भी कोई साधन नहीं है। परंतु नाम रटता हूँ इसलिए यमलोक में क्यों जाऊँ, यम के नौकर मेरे पास क्यों आवेंगे। सब तरह तुम्हारा ही हूँ, तुम्हारी सौगन्ध है, तुम्ही मेरे लिए ठहरने (शान्ति पाने) के स्थान हो। अपनी शरण लेकर मुझे अपने ही झण्डे में बसाइए, तुलसी का घर व्याध और अजामिल के खेड़े पर बसे।

[ २३५ ]

का कियो जोग अजामिल जू, गनिका कबहीं मति पेम पगाई?
व्याध को साधुपनो कहिए, अपराध अगाधनि में ही जनाई॥
करुनाकर की करना करना-हित नाम सुहेत जो देत दगाई।
काहे को खोजिय? रीमिय पै, तुलसीहु सों है, बलि, सोइ सगाई॥