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उत्तरकाण्ड

अर्थ―हे कठिन राजा कलि! सुनो, जिसे तुम मारना चाहो उसे कौन रख सकता है? मैं तो दीन और दुर्बल हूँ। आपका न कुछ बिगाड़ता हूँ, न ढारता हूँ (गिराता हूँ या बनाता हूँ)। मैं और तुम दोनों उसी के हैं जिसका सकल जग है। काम को हलाकर (झण्डी की तरह दिखाकर) अथवा काम और क्रोध मन में लाकर मुझे आँख क्यों दिखाते हो? मेरे माल को उलटा करनेवाले अथवा इतना विरोध करनेवाले आप कौन हैं? मैं तो "रामबोला" नाम रामचन्द्र राजा का नौकर हूँ, जो सुजान मालिक अपने कुत्ते का भी पक्ष करते हैं।

सवैया

[ २४३ ]

साँची कही कलिकाल कराल मैं, डारो बिगारो तिहारो कहा है?।
काम को,कोह को,लोभ को,मोह को,मोहि सों आनि प्रपंच रहा है॥
हौ जगनायक लायक आजु पै मेरियो देव कुटेव* महा है।
जानकीनाथ बिना, तुलसी, जग दूसरे सों करिहौं न हहा है॥

अर्थ―सच कहो, हे कराल कलियुग! मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है, जो काम, क्रोध, मोह और लोभ को लाकर मुझसे ही प्रपंच रचा है? आप आज जगनायक (राजा) के लायक हैं। परन्तु तुलसीदास कहते हैं कि मेरी भी तो यह बड़ी बुरी टेव है कि सिवा जानकीनाथ के दूसरे से याचना न करूँगा।

[ २४४ ]

भागीरथी जलपान करौं अरु नाम द्वै राम के लेत नितै हौं।
मोको न लेनो न देना कळू, कलि! भूलि नराबरी और चितैहौं॥
जानि कै जोर करौं परिनाम, तुम्है पछितैहो पै मैं न भितैहौं।
ब्राह्मन ज्यों उगिल्या उरगारि हौं त्योंहीं तिहारे हिये न हितैहैं॥

अर्थ―गङ्गा का जल पीता हूँ और श्री राम का नाम दो बार लेता हूँ मुझे किसी से न लेना है, न देना। हे कलि! आपकी और मैं भूलकर न देलूँगा। ऐसा जानकर भी प्रणाम करता हूँ अथवा ऐसा जानकर चाहे जितना जोर करो अन्त में तुम्हों


  • पाठान्तर―देव।