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उत्तरकाण्ड

सुत जाय मात-पितु-भक्ति बिन,तिय सो जाय जेहि पति न हित।
सब जाय दास तुलसी कहै जो न रामपद नेह नित॥

अर्थ—वह सुभट गया जिसने रण में समर्थ योधा पाकर लड़ाई न की। वह भी जाय (नष्ट होवे) जो यति कहाकर विषय-वासना को नहीं छोड़ता। वह धनी जाय जो दान नहीं करता और वह निर्धनी जाय जो धर्म नहीं करता। वह पंडित जाय जो पुराण पढ़कर सुकर्म नहीं करता, वह लड़का जाय जो माता पिता का भक्त नहीं है, और वह स्त्री जाय जो पति का हित नहीं करती, और वह सब जायँ, तुलसीदास कहते हैं, जो रामचन्द्र के चरणों में नित प्रेम नहीं करते।

[२५६]

को न क्रोध निरदह्यो, काम बस केहि नहिं कीन्हों?
को न लोभ दृढ़ फंद बाँधि त्रासन करि दीन्हों?॥
कौन हृदय नहिं लाग कठिन अति नारि नयन सर।
लोचन जुत नहिं अंध भयो श्री पाइ कौन नर?॥
सुर-नाग-लोक महि-मण्डलहु को जु मोह कीन्हों जय न।
कह तुलसिदास से ऊबरै जेहि राखि राम राजिवनयन॥

अर्थ—किसको क्रोध ने नहीं जलाया और काम ने किस को बस में नहीं किया? किसको गहरे फन्दे में बाँधकर लोभ ने त्रास नहीं दिया? किस हृदय में स्त्री के नयनों का कड़ा तीर नहीं लगा, कौन मनुष्य ममता पाकर आँख रखते मी अंधा नहीं हो गया? सुरलोक और नागलोक में तथा पृथ्वी पर कौन है जिसको मोह ने नहीं जीता? तुलसीदास कहते हैं कि वही मनुष्य बचता है जिसे कमलनयन श्री राम रक्खें।

सवैया
[२६०]

भौंह कमान सँधान सुठान जे नारि-बिलोकनि-बान तेँ बाँचे।
कोप-कृसानु गुमान-अवाँ घट ज्यों जिनके मन आँच न आँचे॥
लोभ सबै नट के बस ह्वै कपि ज्यों जग में बहु नाच न नाँचे।
नीके हैं साधु सबै तुलसी पै तेई रघुवीर के सेवक साँचे॥