पृष्ठ:कवितावली.pdf/१७८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१५३
उत्तरकाण्ड


काल्हिही साधोंगो काज, काल्हिही राजा समाज,
मसक ह्वै कहै “भार मेरे मेरु हालि है॥”
तुलसी यही कुभाँति घने घर धालि आई
घने घर घालति है, घने घर घालि है।
देखत सुनत समुझत हू न सूझै सोई,
कबहूँ कह्यो न “कालहू को काल काल्हि है॥”

अर्थ—कल ही युवावस्था हो, कल ही पृथ्वी और धन मिल जावे, कल ही रण जीत लूँँ, ऐसी बुरी बुरी चाल सदा मन में रहा करती है। कल ही काम करूँगा, कल ही राजा का सा सामान इकट्ठा करूँगा, मच्छड़ का सा होकर भी कहता है कि मेरे बोझ से मेरु हिलेगा। तुलसीदास कहते हैं कि ऐसी ही कुभाँति (दुर्वा-सना) ने बड़े-बड़े घरों को नष्ट किया है, बड़े घरों को नष्ट कर रही है और बड़े घरों को नष्ट करेगी। सो देखते, सुनते, जानते भी नहीं सुझाई देता और यह (किसी ने) कभी नहीं कहा कि मरने का भी समय कल होगा !

[ २६३ ]


भयो न तिकाल तिहूँलोक तुलसी सो मंद,
निंंदैँ सब साधु, सुनि मानौँ न सकोचु हौं।
जानत न जोग, हिय हानि मानौँ, जानकीस!
काहे को परेखो पातकी प्रपंची पोचु हौं॥
पेट भरिबे के काज महाराज को कहायों,
महाराज हु कह्यो है प्रनत बिमोचु हौं।
निज अघ-जाल, कलिकाल की करालता
बिलोकि होत ब्याकुल, करत सोई सोचु हौं॥

अर्थ—सीनों काल और तीनों लोक में तुलसी सा मन्द न हुआ, न है, न होगा, जिसकी सब साधु निन्दा करते हैं। वह निन्दा सुनकर भी कुछ संकोच नहीं करता है। मैं योग नहीं जानता हूँ। हे जानकीश! अथवा रामचन्द्र अपनी सेवा योग्य मुझे नहीं जानते, इसलिए मन घबराता है। मुझे क्यों परखा है अर्थात मुँह लगाया है?