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कवितावली


अथवा इसका क्या उल्लहना है? मैं तो पापी और प्रपञ्ची, पोच हूँ। पेट भरने के लिए हे महाराज! मैं महाराज का कहाता हूँ, क्योंकि आपने स्वयं कहा है कि आप प्रणत (शरणागतों) को (भवबंधन से) छुड़ानेवाले हैं। अपने पापों के जाल और कलियुग की करालता को देखकर व्याकुल होता हूँ, यही सोच करता हूँ कि मेरा कैसे उबार होगा।

[२६४]


धरम के सेतु जग मंगल के हेतु,
भूमि-भार हरिबे को अवतार लियो नर को।
नीति औ प्रतीति-प्रीति-पाल चालि प्रभु मान,
लोक बेद राखिबे को पन रघुबर को॥
बानर बिभीषन की ओर के कनावड़े हैं,
सो प्रसंग सुने अंग जरै अनुचर को।
राखे रीति आपनी जो होइ सोई कीजै, बलि,
तुलसी तिहारो घर जायउ है घर को॥

अर्थ—धर्म के सेतु ने संसार का भला करने को और भूमि का भार हरने के लिए मनुष्य का अवतार लिया है। नीति, विश्वास और प्रीति को पालना आपका काम है, और हे रघुवर! लोक और वेद का मान रखने का आपका प्रण है। सुग्रीव और विभीषण के कौन ऋणी हैं, जिसकी कथा सुनकर मेरा अंग जलता है कि मुझ पर क्यों नहीं प्रसन्न होते। अपनी रीति रखिए, जो हो सो कीजिए परन्तु तुलसी आपका है। क्या अपने घर फिर जाय? अथवा भगा देने से घर चले जाने पर भी आपही के घर का है, अथवा आपही के घर का घर जायी (दास) है।

[२६५]


नाम महाराज के निबाह नीको कीजै उर,
सबहो सोहात, मैं न लोगनि सोहात हौं।
कीजै राम बार यहि मेरी ओर चखकोर,
ताहि लगि रंक ज्यों सनेह को ललात हौं॥