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उत्तरकाण्ड


तुलसी बिलोकि कलिकाल की करालता,
कृपालु को सुभाव समुझत सकुचात हौं।
लोक एक भाँति को, निलोकनाथ लोकबस,
आपनो न सोच, स्वामी-सोच ही सुखात हौं॥

अर्थ—भला मन में समझ तो देखो कि महाराज के नाम ने भलो निबाही, सबको अच्छा लगता है परन्तु मैं लोगों को अच्छा नहीं लगता, अथवा हे राम! महाराज के नाम ने जो नीको निबाही सो मन में सबको भली लगती है, परन्तु मैं अच्छा नहीं लगता। हे राम! इसी बेर मेरी तरफ आँख फेरिए कि जिसके लिए मैं दरिद्रों की भाँति ललचा रहा हूँ। तुलसी कलिकाल की करालता को देखकर और महाराज से दयालु का स्वभाव समुझकर सकुचाता है कि लोक इस तरह का है, और महाराज, त्रिलोकीनाथ होने के कारण, लोक के वश में हैं। हे स्वामी, मुझे अपना सोच नहीं है। स्वामी के सोच से मैं तो सूखता जाता हूँ।

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तौलौं लोभ, लोलुप ललात लालची लबार
बार बार, लालच धरनि धन धाम को।
तबलौं बियोग रोग सोग भोग जातना को,
जुग सम लगत जीवन जाम-जाम को॥
तौलौं दुख दारिद दहत अति नित तनु,
तुलसी है किंकर बिमोह कोह काम को।
सब दुख आपने, निरापने सकल सुख,
जौलौं जन भयो न बजाइ राजा राम को॥

अर्थ—तब तक लोभ और लालच, लालची और लबार (झूठे) को बार बार ललचाता है और धरती, धन और धाम का लालच दिखाता है, तब तक वियोग, रोग, शोक मौर दुःख के भोग से एक-एक पहर का जोना एक युग सा लगता है, तब तक दुःख और दरिद्र नित्य शरीर को प्रति ही जलाया करता है, और क्रोध, मोह और काम का चाकर बना रहता है, तब तक सब दुःख अपने होते हैं और सब सुख पराये, कि जब तक तुलसी राजाराम का सेवक ताल ठोककर नहीं हो जाता।