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कवितावली
[२६७]


तबलौं मलीन हीन दीन, सुख सपने न,
जहाँ तहाँ दुखी जन भाजन कलेस को।
तबलौं उबैने पायँ फिरत पेटौ खलाय,
बाये मुँह सहत पराभौ देस देस को॥
तब लौं दयावनो दुसह दुख दारिद को,
साथरी को साइबो, ओढ़िबो झूने खेस को।
जबलौं न भजै जीह जानकी जीवन राम,
राजन को राजा सो तो साहब महेस को॥

अर्थ—उस समय तक मनुष्य मैला, दीन, सब बात से गिरा हुआ, सुख जिसे सपने में नहीं है, दुःखी और क्लेश का भाजन रहता है, उस समय तक नंगे पैर पेट दिखाता फिरता है, भीख माँगा करता है और मुँह बाये देश-देश का निरादर सहता है, उस समय तक कड़ा दुःख सहता है, दरिद्र और दयाभाजन रहता है, चटाई का सोना और फटे खेस का ओढ़ना रहता है जब तक कि मनुष्य जीभ से जानकी-जीवन राम का भजन नहीं करता जो राजाओं का राजा और महादेव का भी मालिक है।

[२६८]


ईसन के ईस, महाराजन के महाराज,
देवन के देव, देव! प्रान हूँ के प्रान हौ।
कालहू के काल, महाभूतन के महाभूत,
कर्म हूँ के कर्म, निदानहु* के निदान हौ॥
निगम को अगम, सुगम तुलसीहू से को,
एते मान सीलसिंधु करुणानिधान हौ।
महिमा अपार, काहू बोल को न बारापार,
बड़ी साहिबी में नाथ बड़े सावधान हौ।



* पाठान्तर—निदान।