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उत्तरकाण्ड

सुत्तरकाण्ड अर्थ-ईशों के ईश, महाराजों के महाराज, देवताओं के भी देव और प्राणों । प्राय श्राप हैं। काल के भी काल और महाभूतों के महाभूत, कर्मों के कर्म औ कारयों के भी झारय हैं। निवस ( वेदों) के पाप अगम ( दुर्लभ ) हैं और तुलसी से आदमी को भी सुलभ हैं। इतने बड़े पर भी शोल और मान के सिंधु और करुणा के निधान (घर) हैं। आपकी महिमा अपार है, किसी बात का पार नह है, इतनी बड़ी साहिबी पाकर भी प्राप बड़े सावधान हैं। सवैया [२६] आरतपालु कृपालु जो राम, जेही सुमिरे तेहि को तहँ ठाढ़े। नामप्रताप महा महिमा, अकरे किये खोटेउ, छोटेउ बाढ़े ॥ सेवक एक ते एक अनेक भये तुलसी तिहुँ तापन डाढ़े। प्रेम बदौं। प्रहलादहि को जिन पाहन ते परमेश्वर काढ़े ॥ अर्थ-दुखियों के पालक कृपालु राम को जो जहाँ याद करे उसके लिए वे वहीं मौजूद हैं। उनके नाम का प्रताप बड़ा और महिमा बड़ी है जिससे खोटे भी मँहगे या खरे हो गये और छोटे भी बढ़ गये। एक से एक अच्छे, बहुत से, राम के दास हुए, परन्तु तुलसी तीनों तापों से तपाया जा रहा है अथवा तुलसीदास कहते हैं कि ऐसे एक से एक बड़े अनेक दास हुए जिनको तीनों तापों ने नहीं सताया। प्रेम प्रह्लाद ही का कहा जा सकता है। अथवा प्रह्लाद ही की बड़ाई है जिसके वश पत्थर से परमेश्वर निकले। [२७०] काढ़ि कृपान, कृपा न कहूँ, पितु काल कराल बिलोकि न भागे । 'राम कहाँ 'सब ठाउँ हैं। 'खंभ मैं 'हाँ सुनि हाँक तृकेहरि जागे ॥ बैरि बिदारि भये बिकराल, कहै प्रहलादहि के अनुरागे । प्रीति प्रतीति बढ़ी तुलसी तबतें सब पाहन पूजन लागे ।

  • पाठान्तर-ठाड़े।

+ पाठान्तर--बड़ौ, बढ़ौ । पाठान्सर-हाकनि केहरि ।