पृष्ठ:कवितावली.pdf/१८३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१५८
कवितावली

१५८ सवितायता ___ अर्थ-पिता को लग्न तलवार हाथ में लिये और कृपारहित देखकर प्रसाद न भागे। पिता ने जब पूछा कि राम कहाँ है, लेह उत्तर दिया, कि सब कहीं। "क्या स्वम्भ में हैं ?" "हाँ" ! ऐसा शब्द सुनकर नृसिंह अगे, वैरी को मारकर विकराल रूप धारण किया। केवल प्रह्लाद के कहने से प्रसन्न हुए। उस समय से प्रोति और विश्वास दोनों बढ़ गये और सब लोग पत्थर पूजने लग गये। [२७१] अंतर्जामिहु तें बड़ बाहरजामि हैं राम, जे नाम लिये तें। धावत धेनु पन्हाइ लवाइ ज्यों बालक बोलनि कान किये ते॥ आपनि बूझि कहै तुलसी, कहिले की न बावरि बात बिये तें। पैजु परे प्रहलादह को प्रगटे प्रभु पाहन तें, न हिये तें॥ अर्थ-बाहरजामी अर्थात् घट से बाहर प्रगट होनेवाले अंतर्यामी से बड़े हैं, जो नाम लेने ही से दौड़े, जैसे हाल की ब्याई गाय बच्चे की आवाज़ सुनकर कान लगाकर दौड़ती है। तुलसी अपनी समुझ कहता है, बावले ! यह बात और से कहने- वाली नहीं है अथवा बावली बात कहने योग्य नहीं, प्रह्लाद का पैज (प्रण ) पूरा करने के लिए पत्थर से प्रभु प्रगट हुए, हृदय से नहीं अर्थात् पत्थर में प्रभु माननेवाले के कहने से पत्थर से निकले न कि निर्गुण्य उपासक के हृदय से अथवा प्रभु पत्थर से नहीं निकले बल्कि प्रह्लाद के हृदय से प्रकट हुए। [२७२] बालक बोलि दिये बलि काल को, कायर कोटि कुचाल चलाई। पापी है बाप बड़े परिताप ते श्रापनी ओर ते खोरि न लाई ॥ भूरि दई विषमूरि भई प्रहलाद सुधाई सुधा की मलाई । राम कृपा तुलसी जन को जग होत भले को भलोई भलाई ॥ अर्थ-हिरण्यकशिपु ने लड़के को बुलाकर काल को बलि कर दिया। कादर ने और करोड़ो कुचालें चलीं। बाप बड़ा पापी था कि जिसने पुत्र को दुःख देने में अपनी ओर से कुछ उठा नहीं रक्खा। बहुत सा विष दिया, वह भी प्रह्लाद की सिधाई से अमृत की मलाई हो गई। राम की कृपा से 'तुलसी' से सेवक की जग में सदा भलाई ही होती है।