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कवितावली

कवितावली अर्थ-जन ने ने श्याम जैसे ठप ये प्रोति की से सखी सयानी ने मुझे मना किया था, पर मुझे नहीं मालूम था कि प्रीति में आगे चलकर वियोग का राग है, इसलिए मैं इसका निरादर करके उस पर खफा हुई। अब प्रीति के मारे देह पट ( वस्त्र ) के समान हो गई है जिसकी खोज बिरहा सा दरज़ी कर रहा है अथवा जैसे दरजी ब्योतते समय वस्त्र फाड़ता है वैसे विरह इस देह को भी ब्योतना (फाड़ना) चाहता है। हे भुंग ! सुनो, बिना कृष्णा के कामदेव जी का प्राहक हो गया है अर्थात् प्राण निकाले लेता है। [२७६] जोगकथा पठई ब्रज को, सबसो सठ चेरी की चाल चलाकी । ऊधोज ! क्यों न कहै कुबरी जो बरी नट नागर हेरि हलाकी ॥ जाहि लगै परि, जानै साई, तुलसी सो सोहागिनि नंदलला की । जानी हैं जानपनी हरि की, अब बाँधियगी कछु मोटि कला की ॥ अर्थ-चेरी ( कुबरी) की चालाकी की सबसे की हुई चाल तो देखो जो कि ब्रज में योग की कथा कहला भेजी है। ऊधो जू ! जिन नटनागर ( कृष्ण ) ने हूँढ़कर मारनेवाली कुबरी को बरी है, वह हमसे ऐसी बात क्यों न कहे अर्थात् उनकी होशि- थारी वो इसी से जाहिर है कि कुबरी को व्याहा है वह हमको यो क्यों न कहेंगे ? अथवा कौन कहे अब नट-नागर कृष्ण ने मारनेवाली कुघरी को हेर (टूढ़) कर बरा है अथवा उधोजी, उसे कुबरी कौन कहे जिसे नटनागर (कृष्ध ) ने ढूँढ़कर बरा है। जिसके लगती है वही जानता है, हे तुलसो ! अब कुबरी नन्दलाल की सुहागिनी स्रो है। हरि की होशियारी देख ली, अब कला की कुछ गठरी और बाँधेगी अर्थात् कुछ और चालाकी की चाल चलेगी अथवा यदि कृष्ण कूबर ही पर रीझते हैं तो हम भी अब कला की गठरी बाँध कबर बनावेंगी। घनाक्षरी [ २७७] पठयो है छपद छबीले कान्ह केहू कहूँ खोजि कै खबास खासो कूबरी सो बाल को । ज्ञान को गरैया, बिनु गिरा को पढैया, बार खाल को कलैया सो बढ्या उरसाल को ॥