पृष्ठ:कवितावली.pdf/१८५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१६१
उत्तरकाण्ड

उत्तरकाण्ड प्रोति को बधिक, रसरीति को अधिक, नीति-निपुन विवेक है निदेस देसकाल को। तुलसी कहे न बने, सहेही बनेगी सब, जोग भयो जोग को, बियोग नंदलाल को॥ अर्थ-छबीले कन्हैया ने कहीं से खोजकर भला खवास, कूबरी का सा बालक, मारा भेजा है। वह ज्ञान का गढ़नेवाला, बिना बानी के पढ़नेवाला, बाल की खाल का निकालनेवाला और हृदय के दर्द का बढ़ानेवाला है। अथवा उर में साल (छिद्र) करने को बढ़ई सा है। वह प्रीति का नाश करनेवाला और रस की रीति में और भी बढ़कर है। नौति में निपुण, देश-काल का निदेश करने में मानवान है। तुलसी कहते हैं कि सहे ही बनेगी, कुछ कहीं नहीं जाती, नन्दलाल का वियोग सब योग का योग ( मेल ) हो गया अर्थात् योग खूब मिला यदि नन्दलाल का वियोग हुआ अथवा नन्दलाल का वियोग क्या हुआ योग तो अपने आप ही मिल गया। [२८] हनुमान है कृपालु, लाडिले लषन लाल, भावते भरत कीजैछ सेवक सहाय जू । बिनती करत दीन दूबरो दयावनो सो, बिगरे ते आपही सुधारि लीजै भाय जू ॥ मेरी साहिबिनि सदा सीस पर बिलसति, देवि ! क्यों न दास को देखाइयत पाय जू । खीझहू में रीभिबे की बानि, राम रीझता हैं, रीझे हैहैं राम की दुहाई रघुराय जू ॥ अर्थ-हे कृपालु हनुमान् ! लाडिले लषन लाल ! और भावते ( मन को लुभानेवाले) भरत ! दास के सहाय हूजिए । यह दीन दया का पात्र विनती करता है कि बिगड़े भाव को आप ही सुधार लीजिए। मेरी साहिबिनी (सीता) सदा सिर पर विलास करती हैं, हे देवि! मुझे पैर क्यों नहीं दिखाती ? रामचन्द्र पाठान्तर-हजे। +पाठान्तर-लगत ।