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उत्तरकाण्ड

उत्तरकाण्ड अर्थ-जहाँ सप्त ऋषि की शिक्षा से वाल्मीकि मुनि 'मरमरा' जपकर व्याध से ऋषि हो गये, जहाँ सीता का निवास था और जो लव-कुश का जन्म स्थान है, और तुलसी कहते हैं, कि जहाँ की छाँह छूते ही अर्थात् जहाँ पहुँचते ही, शरीर का सब ताप नष्ट हो जाता है, जहाँ महावृक्ष गंगा के किनारे शोभायमान है जिसे सीता-वट कहते हैं कि जिसके देखते ही पापी भी पुनीत ( पवित्र ) हो जाता है। सो वारि- पुर और दिगपुर के बीच में श्री सीता के कमल-सदृश चरणों से अंकित भूमि अति रमणीक जान पड़ती है। [२८१] मरकत-बरन परन, फल मानिक से, लसै जटाजूट जन रूख बेष हरु है। सुखमा को ढेरु कधौं, सुकृत सुमेरु कैधौं, । संपदा सकल मुद मंगल को घरु है । देत अभिमत जो समेत प्रीति सेइए, प्रतीति मानि तुलसी बिचारिकाको थर है। सुरसरि निकट सोहावनी अवनि सोहै, राम-रमनी को। बट कलि-कामतरु है ॥ अर्थ-मरकत के से जिसके पत्ते हैं और मानिक से लाल फल हैं, और अटा . के जूट जो घट की दाढ़ी कहलाती है मानों वृक्ष के वेष में महादेव हैं । वह वृक्ष सुन्दरता का समूह है, पुण्य का पहाड़ और सब संपदा, मोद और मंगल का घर है। जो विश्वास और प्रीति से सेवा करता है उसे इच्छित फल देता है। तुलसी कहते हैं कि यह विचारकर कौन स्थिर रह सकता है अर्थात् सेवा के लिए किसका मन न चलेगा अथवा यह विचारकर कि यह किसका घर (स्थान) है (अर्थात् जानकी का), प्रतीति और विश्वास सहित जो सेवा करते हैं उन्हें वह इच्छित फल देता है। सुरसरि के समीप सुन्दर भूमि है कि जहाँ सीताजी का घट फलि में कल्पद्रुम के समान विद्यमान है।

  • पाठान्तर-रूप ।

+ पाठान्तर-राध नीके।