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उत्तरकाण्ड

अर्थ—जहाँ पवित्र वन है और पशु-पक्षी सुन्दर हैं, जो देखने में बड़ा आनन्द देनेवाले खेत के खूँट (कोना, सीमा) सा जान पड़ता है, जहाँ सीता-राम, लक्ष्मण और मुनियों का निवास है, जहाँ सिद्ध साधु साधक मानो ज्ञान के वृक्ष से हैं अथवा जो साधुओं को ज्ञान के वृक्ष का सा है। जहाँ झरनों से ठण्डा शीतल पवित्र जल निकलता है, जहाँ सुन्दर मन्दाकिनी महादेव के जटा-जूट से निकलकर बहती हैं, तुलसी कहते हैं कि यदि श्रीराम से सबा स्नेह चाहते हो तो प्रीति-पूर्वक ऐसे विचित्र चित्रकूट का सेवन करो।

[२८४]


मोह-बन कलिमल-पल-पीन जानि जिय,
साधु गाय बिप्रन के भय को निवारिहै।
दीन्हीं है रजाय राम पाइ सो सहाय लाल
लषन समर्थ बीर हेरि हेरि मारिहै॥
मंदाकिनी मंजुल कमान असि, वान जहाँ
बारि-धार, धीर परि सुकर सुधारि है।
चित्रकूट अचल अहेरि बैव्यो घात मानो,
पातक के ब्रात घोर सावज सँहारिहै॥

अर्थ—मोह के वन में कलि के मलरूपी मांस से अर्थात् पाप से मोटा हुआ हृदय में जानकर साधु, गौ और विप्रों के भय (डर) को नाश करेगा, राम ने जो आज्ञा दी है, उसे और समर्थ वीर लाल लक्ष्मण की सहायता पाकर पाप के समूह को ढूँँढ़-ढूँँढ़कर मारेगा, सुन्दर मन्दाकिनी जहाँ कमान जैसी है और उसकी वारि- धारा माना बाण है, उसे धीरज से अच्छे हाथों से सँभालेगा, ऐसा चित्रकूट मानों वधिक की तरह अथल बैठा है और पाप के समूह-रूपी जानवरों का नाश करेगा।

शब्दार्थ—पल= मांस। अहेरि= शिकारी। असि= ऐसी। ब्रात= समूह। सावज= जंगली जानवर।

सवैया
[२८५]

लागि दवारि पहार ठही लहकी कपि लंक जथा खर-खोकी।
चारु चवा चहुँ ओर चलैं लपटैं झपटैं सो तमीचर तौंकी॥