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सम्बन्धी और सामयिक घटनाओं के वर्णन से हिन्दी भाषा के इतिहासज्ञों में भी उसका आदर थोड़ा नहीं है। कवितावली की भाषा अधिकतर ब्रजभाषा है। भाषा का माधुर्य उसके छन्दों में भरा पड़ा है। प्राकृतिक वर्णन भी खूब है। इसमें अन्य भाषाओं के शब्दों—फ़ारसी, अरबी, बुन्देलखण्डी आदि— का भी बहुतायत से प्रयोग किया गया है, ग्रामीण भाषा के और खासकर बुन्देलखण्डी ग्रामीण भाषा के शब्द भी पाये जाते हैं जिनका अर्थ लगाना भी कभी-कभी कठिन हो जाता है। जहाँ कविजी को आवश्यक मालूम हुआ है वहाँ उन्होंने अन्य भाषाओं और संस्कृत के शब्दों को मनमाना स्वरूप देकर प्रयुक्त किया है। कवितावली के पढ़ने से यह प्रत्यक्ष भान होता है कि उसके अनेक छन्द तुलसीदासजी ने उस समय रचे थे जिस समय हिन्दी भाषा पर उनका पूर्ण रूप से अधिकार स्थिर नहीं हुआ था। परन्तु अनेक छन्द, जो अतुमानतः प्रौढ़कात के हैं, भाषा के सम्बन्ध से बड़ी उच्च कोटि के हैं। उनमें प्रसाद गुण भरा पड़ा है। उदाहरण के लिए बालकाण्ड के उन छन्दों को देखिए जिनमें रामचन्द्रजी के बाल स्वरूप का वर्णन है। लङ्का-काण्ड और सुन्दर-काण्ड भी ऐसे छन्दों से भरे पड़े हैं। आज गुण भी उनके अनेक छन्दों में मिलेगा।

अलङ्कार

कवितावली में अलङ्कारों की आयोजना भी अच्छी है। रूपक, यमक, उत्प्रेक्षा और उपमा आदि अलङ्कार बहुतायत से हैं। बहुधा स्वाभाविक रूप से अलङ्कारों का प्रभाव दिखाई देता है परन्तु अनेक रूपक ऐसी खींचातानी के साथ बाँधे गये हैं कि बिल्कुल अस्वाभाविक हो गये हैं। उदाहरण के लिए छन्द २८४ देखिए जिसमें चित्रकूट का रूपक अहेरी से बाँधा गया है।

रस

कविता-प्रेमियों को इसमें नव रसों का स्वाद मिलता है। नमूने के लिए निम्नलिखित पद्य उद्धृत किये जाते हैं—

श्रृङ्गार

सीस जटा, उर बाहु बिसाल, बिलोचन लाल, तिरीछीसी भौंहैं।
तून, सरासन, बान धरे, तुलसी बन-मारग में सुठि सोहैं॥
सादर बारहि बार सुभाय चितै सुम त्योँ हमरो मन मोहैं।
पूँछति ग्रामवधू सिय सों “कहो साँवरे से, सखि! राबरे को हैं”?॥१॥

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