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उत्तरकाण्ड

अर्थ-गङ्गा को जो सेवक जानते हैं, उनके मन में गङ्गा प्राने ही अर्थात् स्मरण करते ही अथवा जो जन गङ्गा जाने का मन में विचार करते हैं उनके करोड़ों कुल उद्धार पा जाते हैं और चलते देख इन्द्र विमान सँभालने लगते हैं और सुरवधू ( उसे वरने को) भी झगड़ा करने लगती हैं। ब्रह्मा, जो माहात्म्य के जाननेवाले हैं, पजा का ठाट रचने लगते हैं यानी समझते हैं कि नहानेवाला हमारे पास अब आता है. हरिलोक में ओक ( घर ) की नींघ तभी पड़ जाती है जब कि हे गङ्गे! तुम्हारी तरङ्ग को देखा जाता है। [२८] ब्रह्म जो ब्यापक बेद कहैं, गम नाहि गिरा गुन ज्ञान गुनी को। जो करता भरता हरता सुर साहिब, साहव दीन दुनी को । सोई भयो द्रवरूप सही जु है नाथ बिरच महेस मुनी को। मानि प्रतीति सदा तुलसी जल काहे न सेवत देवधुनी को ? ॥ अर्थ-जिसको वेद व्यापक ब्रह्म बतलाते हैं, जिसके गुण जानने और गिनने की गवि गिरा (वाणी, सरस्वती) को भी नहीं है; जो कर्त्ता, भर्ता और हर्ता है, देवताओं का राजा और दीन-दुनिया का साहेब (मालिक) है, वह पानी के रूप में बहता है, जो ब्रह्मा, महेश और मुनियों का नाथ है, हे तुलसी ! विश्वास करके क्यों नहीं उस गङ्गाजल का लेग सेवन करते। [२८] बारि तिहारो निहारि मुरारि भये परसे पद पाय लहाँगो । ईस है सीस धरौं पै डरौं, प्रभु की समता बड़ दोष दुहोगा ॥ बरु बारहि बार सरीर धरौं, रघुबीर को है तव तीर रहैंगो । भागीरथी! बिनवौं कर जोरि, बहोरि न खोरि लगै सो कहाँगो ॥ अर्थ-तुम्हारे जल को देखकर यदि मुरारि हुमा तो पैर से छूने से मुझे पाप मिलेगा। भाव यह है कि तुम्हारे दर्शन-मात्र का यह फल है कि उत्तम पद मिलता है, यदि विष्णु पद मिला तो तुमको पैर दे धारण करना पड़ेगा, क्योंकि गंगा की उत्पत्ति विष्णुपद से है, सो इसमें पाप है कि जिसके दर्शन से पद मिला उसे ही पैर पाठान्सर-जन।