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उत्तरकाण्ड

सुपर काण्ड हैं, अनोखे और शृङ्गो हैं { अति सींग बजाते हैं ), और सम्पूर्ण काल के काँटों को हरनेवाले हैं। देते हुए नहीं थमने, जवा जी हानाथ ( महादेव ) अबढर ढरते हैं तब माक (मदार ) के पत्तों ही पर रीझ जाते हैं। देने पर उतारू होते हैं। [३०२ देत संपदा समेत श्रीनिकेत जाचकनि, भवन विभूति भाँग बृषभ वहनु है । नाम बामदेव, दाहिना सदा, असंग रंग, अर्द्ध अंग अंगना, अनंग को महनु है ॥ तुलसी महेस को प्रभाव भाव ही सुगम, निगम अगम हूँ को जानिवा गहनु है। बेष तो भिखारि को, भयंक रूप संकर, दयालु दीनबंधु दानि दारिद-दहनु है ।। अर्थ-माँगनेवालों को, सब सम्पदा सहित, श्री-निकेत (लक्ष्मी का स्थान-स्वर्ग) देते हो, घर में भाँग और भस्म ही हैं और वैल की सवारी है: नाम से आपका वाम- देव है मगर सदा दाहिने ( अनुकूलत ) रहते हो, विरति ( किसी में श्रासक्त न होना) ही रङ्ग है परन्तु खो सदा सङ्ग है यद्यपि आप कामदेव को मारनेवाले हैं; तुलसी कहते हैं कि महादेव का यही प्रभाव है कि भाव से सुगम ( भावना करनेवालों को सुलभ ) हैं और पूजा इत्यादि नहीं चाहते, यद्यपि वेद और शास्त्र को आपका जानना दुर्गम है। आपका वेष भयंकर और भिखारियों का सा है परन्तु श्राप शङ्कर (कल्याणकारी), दयालु, दीनबन्धु और दरिद्रता का नाश करनेवाले हो। ३०३] चाहै न अनंग-अरि एको अंग मंगन को, देबोई पै जानिए सुभाव-सिद्ध बानि सो। बारि-बुंद चारि त्रिपुरारि पर डारिए तो, देत फल चारि, लेत सेवा साँची मानि सो॥ -- - ___* पाठान्तर-माँगये ।