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कवितावली


तुलसी भरोसो न भवेस भोलानाथ को तौ,
कोटिक कलेस करौ मरौ† छार छानि सो।
दारिद-दमन, दुख-दोष-दाह-दावानल,
दुनी न दयालु दूजो दानि सूलपानि सो॥

अर्थकामदेव के वैरी (महादेव) माँगने (भिखारी) से एक भी अङ्ग (भक्ति का) नहीं चाहते, देना उनका स्वभाव-सिद्ध बान (प्रण) है। पानी की चार बूँँदें महादेव पर डालने से वे सच्ची सेवा मान लेते हैं और चारों फल देते हैं। तुलसीदास कहते हैं कि यदि भोलानाथ का भरोसा नहीं किया है अर्थात् उन पर विश्वास नहीं किया है तो करोड़ों क्लेश होते हैं चाहे जितनी खाक छानो। दरिद्र को मिटानेवाले, दुःख और दोष को जलाने में दावानल के समान महादेव सा दुनिया में दूसरा दयालु नहीं है।

[ ३०४]


काहे को अनेक देव सेवत जागै मसान,
खोवत अपान, सठ होत हठि प्रेत रे।
काहे को उपाय कोटि करत मरत धाय,
जाचत नरेस देस देस के, अचेत रे!
तुलसी प्रतीति बिनु त्यागै तैं प्रयाग तनु,
धन ही के हेतु दान देत कुरुखेत रे।
पात द्वे धतूरै के दै* भोरे के भवेस सो,
सुरेस हू की संपदा सुभाय सों न लेत रे।

अर्थ—क्यों व्यर्थ अनेक देवताओं की सेवा करके मसान जगाते हो अर्थात् उनकी भक्ति की प्राप्ति मसान के जगाने सी दुर्लभ है, अथवा कोई बताओ कि क्यों अनेक देवताओं की सेवा करते हो, क्यों मसान जगाते हो। अपान खाते हो (प्राणायामसाधते हो) अथवा अपान (अपने को) खाते (बिगाड़ते) हो और हठ करके हे शठ! प्रेत क्यों होते हो (अकाल-मृत्यु वाले प्रेत-योनि पाते हैं), क्यों करोड़ों उपाय



†पाठान्तर—मरो।
*पाठान्तर—हैं।