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उत्तरकाण्ड


करते हो, क्यों व्यर्थ दैाड़-दौड़कर मारते हो और देश-देश के राजाओं से माँगते हो? तुलसी शहते हैं कि क्यों व्यर्थ, बिना विश्वास, प्रयाग में देह छोड़ते हो, या धन के लोभ से कुरुक्षेत्र में दान देते हो, (जब कि) देश धतूरों के पत्ते ही भवेश (महादेव) को सीधे चढ़ाने से सहज ही इन्द्र की सी सम्पदा मिलती है, उसको क्यों नहीं लेते?

[३०५]


स्पंदन, गयंद, बाजि-राजि, भले भले भट,
धन-धाम-निकर, करनि हू न पूजे क्वै*।
बनिता बिनीत, पूत पाचन सोहावन, औ
बिनय बिबेक विद्या सुभग† सरीर ज्वै‡॥
इहाँ ऐसो सुख, परलोक सिवलोक ओक,
ताको फल§ तुलसी सोँ सुनौ सावधान ह्वै‖।
जाने, बिदु जाने, कै रिसाने, केलि कबहुँक,
सिवहि चढ़ाये ह्वै हैं बेल के पतौवा द्वै¶॥

अर्थ—इस लोक में जिसे रथ, हाथी और घोड़ों का समूह, अच्छे-अच्छे योधा और ऐसी करनी (करतूत) कि जिसको कौन नहीं पूजता है (अर्थात् सब लोग सम्मान करते हैं) अथवा जिसको कोई नहीं पूजता अर्थात् पहुँचता है, विनीत स्त्री, पवित्र और सुन्दर पुत्र, विनय, ज्ञान तथा विद्या समेत सुन्दर शरीर आदि सब सुख प्राप्त हैं और जिसे परलोक में शिवलोक की प्राप्ति होती है; सो तुलसीदाम कहते हैं कि सब सावधान होकर सुनो कि यह उसी का फल है कि उसने जान-बूझकर या बिना जाने, गुस्से में या खेल में, दो बेल के पत्ते शिवजी पर कभी चढ़ा दिये होंगे।

[३०६]


रति सी रवनि, सिंधु-मेखला-अवनिपति,
औनिप अनेक ठाढ़े हाथ जोरि हारि कै।



* पाठान्तर—पूजै क्वय।
†पाठान्तर—सुलभ।
‡पाठान्तर—वय।
§पाठान्तर—फलै।
‖पाठान्तर—ह्वम।
¶पाठान्तर—द्वय।