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उत्तरकाण्ड

लेता है, न इसके कर्म में मलाई लिखी है परन्तु इसका मुझे कुछ सच नहीं है अथवा किसी का कुछ विगाडला भी नहीं हूँ, इतने पर भी यदि आपका होकर ( दास बनकर) जल्म करे तो उसके जोनको पाप ही कहता हूँ। यदि वह मेरे स्वामी रामचन्द्र से उराहना पाकर आपसे उराहना करे अथवा योदे मेरे स्वामी रामचन्द्रजी आपसे उराहना करें तो मुझे उराहना न दीजिएगा। हे काशीनाथ ! काल ( कलियुग) की कला (मापसे) कहकर मैं (अपने फ़र्ज़ ले) निवृत्त होता हूँ अथवा हे काशीनाथ ! यदि कालिकला (कदाचित) कोई कभी उराहना दे तो मैं पहले ही से कहकर निहस होता हूँ। [३८] चेरो राम राय को सुजस सुनि तेरो, हर : पाइँ तर श्राइ रह्यों सुरसरितीर हैं।। बामदेव, राम को सुभाव सील जानि जिय, नातो नेह जानियत रघुबीर भीर हैं। ॥ प्राविभूत, बेदन बिषम होत, भूतनाथ ! तुलसी विकल पाहि पचत कुपीर हौं । मारिए तो अनायास कासीबास खास फल, ज्याइए तो कृपा करि निरुज सरीर हौं । अर्थ-राम का सेवक हूँ और हे महादेव ! आपका यश सुनकर यहाँ गङ्गा के किनारे आपके चरणों में पा रहा हूँ। हे महादेव ! रामचन्द्र का स्वभाव और शील आप जानते हैं और मेरा रामचन्द्र से नाता और नेह भी जानते हैं कि हृदय से राम- चन्द्र ही पर सब भार रखता हूँ। हे भूतनाथ ! तुलसी को बाहरी पोड़ा बड़ी होती है, यह बेकल और बड़ी पोर में पच रहा है। बचाओ, यदि मारना है तो बिना परिश्रम के काशोवास का खास फल ( मोक्ष ) दीजिए और अगर जिलाना है तो शरीर रोग-रहित कर दीजिए। [३०] जीबे की न लालसा, दयालु महादेव ! मोहि, मालुम है तोहिं मरबेई को रहतु हौं ।