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कवितावली

विदावली बोली बिस्वनाथ की बिसाद बड़ो बारामती, बूझिए न ऐसी गति संकर-सहर की। कैसे कहै तुलसी, बृषासुर के बरदानि ! वानि जानि सुधा तजि पियनि जहर की ॥ अर्थ-जहाँ महादेव से मालिक और पार्वती सी मालकिन हैं, जिस जगह की महिमा दुनिया और वेद दोनों में जाहिर है, जहाँ रुद्र के गण वीरभद्र से योधा और कार्तिकेय षडानन और गणेश से सेनापति हैं, वहाँ कलियुग की कुचाल को किसी ने भी न हरका या मना किया। कुछ न पूछिए, यदि विश्वनाथ की बस्ती को ऐसा बड़ा दुःख और शंकर के शहर बाराणसी की ऐसी गति हो अथवा विश्वनाथ की बीसी में काशी में ऐसा दुख है कि महादेव के शहर की हालत कुछ न पूछिए । हे वृषासुर के वर देनेवाले ! अमृत छोड़कर विष पीने की आपकी बानि जानकर तुलसी क्या कहे अर्थात् यदि ऐसी बानिवाले के शहर की यह गति है तो क्या अचम्भा है जो अमृत छोड़कर विष पीता है और वैरी वृषासुर को वर देता है। [३१३] लोक बेदह बिदित बारानसी की बड़ाई, बासी नर-नारि ईस-अंबिका-स्वरूप हैं। कालनाथ कोतवाल दंडकारि दंडपानि, सभासद गनप से अमित अनूप हैं । तहाँ ऊँ कुचालि कलिकाल की कुरीति, कैधौं जानत न मूढ़ इहाँ भूतनाथ भूप हैं। फलें फूलै फैले खल, सौंदै साधु पल पल, खाती दीपमालिका ठठाइयत सूप हैं ॥ अर्थ-लोक और वेद सबमें काशी की महिमा विदित है, जहाँ के रहनेवाले स्त्री और पुरुष साक्षात् महेश और पार्वतीजी के स्वरूप हैं। जहाँ कालनाथ भैरव स्वयं कोतवाल हैं, दण्डपाणि भैरव दण्ड देनेवाले हैं और गयोश से अनेक अप

  • पाठान्तर-वाती दीपमालिका लाइसत सप है।