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उत्तरकाण्ड


सभासद हैं, वहाँ भी कलियुग को कुचालि चलती है, कुरीति दिखाई देती है। कदाचित् कलियुग बेवकूफ़ यह कहीं जानता है कि यहाँ के राजा भूतनाथ (शिवजी) है, खल फलता फूलता और बढ़ता है, साधु पल-पल पर दुःख पाते हैं, जैसे दिया तो घी खाता है और सूप ठठाये (बजाये) जाते हैं अर्थात् दिवाली के दिन दीप घी खाते हैं और सूप इत्यादि पीटे जाते हैं सो मानो दीपावली ने घी चुराया और मारे गये सूप अर्थात् दुःख दिया खल ने, मारे गये साधु।

[३१४]


पंचकोस पुन्यकोस स्वारथ परारथ को,
जानि आप आपने सुपास बास दिया है।
नीच नर-नारि न सँभारि सकैं आदर,
लहत फल कादर बिचारि जो न किया है॥
बारी बारानसी बिनु कहे चक्र चक्रपानि,
मानि हित हानि सो मुरारि मन भियो है।
रोष में भरोसो एक आसुतोष कहि जात,
बिकल बिलोकि लोक कालकूट पियो है॥

अर्थ—स्वार्थ और परमार्थ के पुण्यकोश (पुण्य के ख़जा़ने) पञ्चकोश को जानकर आपने अपने पास स्थान दिया है, नीच नर और नारी आदर को सँभाल नहीं सकते, जो काम विचारकर नहीं किया है उसी का फल कायर पाते हैं। जब काशी को चक्रपाणि के बिना कहे चक्र ने जला दिया था तो अपने हितू महादेव की हानि मानकर मुरारि के मन में डर हुआ था, यद्यपि बिना आज्ञा चक्र ने जलाया था तो भी चक्रपाणि को डर हुआ। आपके गुस्से में एक भरोसा है कि भाप आशुतोष (शीघ्र प्रसन्न होनेवाले) कहे जाते हैं, संसार को विकल देखकर आपने कालकूट विष पिया था, क्या इस विष को आप न पियेंगे?

[ ३१५ ]


रचत बिरंचि, हरि पालत, हरत हर,
तेरे ही प्रसाद जग अग-जग-पालिके।