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कवितावली

राहिली बिकास बिस्व तो है जिल्लामा सन, ताहि में सनात नातु भूलिधर-शालिके। दीजै अवलंब जगदंब न बिलंब कीजै, करना-तरंगिनी कृपा-तरंग-मालिके। रोष महामारीकै परितोष, महतारी ! दुनी देखिए दुखारी मुनि-मानस-मरालिके ॥ अर्थ-जग (संसार ) को ब्रह्मा उत्पन्न करते हैं और विष्णु रक्षा करते हैं. महादेव हरते हैं, परंन्तु तेरी ही कृपा से, हे चराचर को पालनेवाली, तुझ ही में इस जगत् का विकास होता है, और तुझ ही में उसका भोग है और फिर तुझ ही में सब समा जाता है। हे हिमाचल की कन्या पार्वती ! हे जगदम्बा ! अब देर न कीजिए, सहारा दीजिए। हे दया की तरङ्गवाली ! हे कृपा की तरह की खानि! हे मुनियों के मन में हंसिनी-रूप! दुख से भरी हुई दुनिया की ओर देखिए ! हे मा! कृपा कीजिए, यह रोष (क्रोध) बड़ा भारी है अथवा महामारी ने क्रोध कर रक्खा है। [३१६] निपट बसेरे, अघ औगुन घनेरे, नर नारिऊ अनेरे, जगदंब ! चेरी चेरे हैं। दारिदी दुखारी, देखि भूसुर भिखारी भीरु, लोभ मोह काम कोह कलिमल-घेरे हैं ॥ लोक-रीति राखी राम, साखी बामदेव जान, जन की बिनति मानि मातु कहि 'मेरे हैं। महामारो महेशानि महिमा की खानि, मोद-मंगल की रासि, दास कासी-बासी तेरे हैं। अर्थ-तेरे ही भरोसे पर बसे हैं, पाप और अवगुण बहुतों से भरे हैं, नर और नारी सब अनजान हैं, परन्तु हे जगदम्बा! तेरे दास हैं, अथवा यद्यपि नर-नारी सब अनाड़ो, पाप और औगुण के निरे बसेरे (घर) हैं। दरिद्र से दुःखी हैं और ब्राह्मण

  • पाठान्तर-महाभारी।