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उत्तरकाण्ड


और भिखारी देखकर डरते हैं। इन्हें लोभ, मोह, काम, क्रोध और कलि के मल (पाप) घेरे हैं। महादेव साक्षी हैं कि रामचन्द्र ने लोक-रीति को रक्खा (खूब निबाहा)। हे माता! पाप भी सेवक की विनय मानकर महामारी से कहें कि ये मेरे हैं। हे पार्वती! महिमा की खानि! मोद और हर्ष की राशि! हे महामाया! देवि! हे महेशानी, काशी के रहनेवाले तो आपके दास हैं। अतएव उन्हें क्षमा कीजिए।

[३१७]


लोगन के पाप, कैधौं सिद्ध-सुर-साप,
काल के प्रताप कासी तिहूँ-ताप-तई है।
ऊँचे, नीचे, बीच के, धनिक रंक राजा राय,
हठनि बजाइ करि डीठि पीठि दई है॥
देवता निहोरे, महामारिन्ह सों कर जोरे,
भोरानाथ जानि भोरे आपनी सी ठई है।
करुनानिधान हनुमान बीर बलवान,
जसरासि जहाँ तहाँ तैंहो लूट लई है॥

अर्थ—लोगों के पाप से अथवा किसी देवता या सिद्ध के शाप से या कलिकाल के प्रभाव से काशी को तीनों तापों ने घेर लिया है। छोटे, बड़े, बीच के, धनी, निर्धन, राजा, राय सबने हठ (मज़बूती) से पीठ देकर दृष्टि फेर ली है अर्थात् नगर छोड़ दिया है अथवा धर्म छोड़ दिया है। देवताओं से विनती की, महामारी देवी के सामने हाथ जोड़े, भोलानाथ को भोला जानकर महामारी ने अपनी सी कर रक्खी है अर्थात् मनमानी कर रक्खी है। हे करुणानिधान बली वीर हनुमान्! हे यश की राशि! जहाँ-तहाँ जान पड़ता है मानों (काशी को) किसी ने लूट लिया है, अथवा जहाँ-तहाँ यश की राशि तुम्हीं ने लूटी है, यहाँ भी यश तुम्हारे हाथ है।

[३१८]


संकर सहर सर नरनारि बारिचर,
विकल सकल महामारी माँजा भई है।
उछरत उतरात हहरात मरि जात,
भभरि भगत जल-थल मीच मई है॥