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कवितावली


देव ल दयालु महिपाल न कृपालुचित,
बारानसी बाढ़ति अनीति नित नई है।
पाहि रघुराज, पाहि कपिराज रामदूत,
राम हू की बिगरी तुहीं सुधारि लई है॥

अर्थ—काशो-रूपी तड़ाग (तालाब) के स्त्री-पुरुष रूपी जीवों को विकल करने के लिए महामारी माँजा हो गई है। ये जन्तु तैरते हैं, घबराते हैं, मर जाते हैं या घबड़ाकर भाग जाते हैं, जल और स्थल सब जगह मौत ही मौत दिखाई देती है, न देवता दया करते हैं, न मन में राजा कृपा करता है, काशी में रोज़ नई-नई अनीति बढ़ती है, हे रामचन्द्र! कृपा करो, हे हनुमान्! कृपा करो तुमने रामचन्द्र की बिगड़ती गति को भी सँभाल लिया था।

शब्दार्थ—माँजा= विष।

[३१६]


एक तो कराल कलिकाल सूल-मूल तामें,
कोढ़ में की खाजु सी सनीचरी है मीन की
बेद-धर्म दूरि गये, भूमि* चोर भूप भये,
साधु सीद्यमान, जानि† रीति पाप-पीन की॥
दुबरे को दूसरो न द्वार, राम दया-धाम!
रावरीई गति बल-विभव बिहीन की।
लागैगी पै लाज वा बिराजमान बिरुदहि,
महाराज आजु जो न देत दादि दीन की॥

अर्थ—एक तो कलियुग ही बड़ी पीड़ा की जड़ है तिसमें भी शनैश्चर मीन के हैं, सो मानो कोढ़ में खाज है, वेद और धर्म दूर हो गये, राजा पृथ्वी के चोर हो गये, साधु पीड़ा पाते हैं, सो मोटे पाप का ही फल जानना चाहिए। दुबले को कोई दूसरा द्वार नहीं है, हे राम! दया के धाम! बल और ऐश्वर्य से रहित जन को आप ही की



*पाठान्तर—भूप।
†पाठान्तर—सिद्ध मान जात वा जान।