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उत्तरकाण्ड


गति है। यदि आप दीन की फरियाद नहीं सुनेंगे तो अपने विरद पर आरूढ़ महाराज को लाज आयेगी।

शब्दार्थ— सीद्यमान= पीड़ा पाना। बिरुद= शरणागत की रक्षा करने का प्रण।

[३२०]


राम नाम मातु पितु, स्वामी समरथ, हितु,
आस राम नाम की, भरोसो राम नाम को।
प्रेम राम नाम ही सों, नेम राम नाम ही को,
जानौं न मरम पद दाहिनो न बाम को॥
स्वारथ सकल परमारथ को राम नाम,
राम-नाम-हीन तुलसी न काहू काम को।
राम की सपथ सरबस मेरे राम नाम,
कामधेनु कामतरु मोसे छीन छाम को

अर्थराम नाम ही मेरा माता-पिता है, वही समर्थ स्वामी है, वही हितू है, राम नाम ही की मुझे आशा है, उसी का मुझे भरोसा है, राम नाम ही से प्रीति है, राम नाम ही का नियम है, राम नाम ही जानता हूँ, न दक्षिण मार्ग का मुझे ज्ञान है न वाम मार्ग का अथवा न अच्छा रास्ता जानता हूँ न बुरा, अथवा दाहिने से बाँया पाँव नहीं पहचानता हूँ अर्थात् इतना भोला हूँ कि मुझे कुछ ज्ञात नहीं है अथवा दहिने बायें पद का कुछ मर्म (भेद) नहीं जानता हूँ। सब स्वार्थ और परमार्थ राम नाम ही है, बिना राम नाम के तुलसी किसी काम का नहीं है, राम नाम की सौगन्ध, राम नाम ही मेरे लिए सब कुछ है, राम नाम कामधेनु है, मेरे जैसे दुर्बल और हलके को वही कल्पतरु है।

सवैया
[३२१]

मारग मारि, महीसुर मारि, कुमारग कोटिक कै धन लीयो।
संकर कोप सों पाप को दाम परीछित जाहिगो जारिकै हीयो॥
कासी में कंटक जेते भये ते गे पाइ अघाइ कै आपना कीयो।
आज की काल्हि परौं कि नरौं जड जाहिंगे चाटि दिवारीको दीयो॥