पृष्ठ:कवितावली.pdf/२१२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१८८
कवितावली

१८८ कवितावली सर्थ-मार्ग को बिगाड़कर अथवा मार्ग में लूटकर, ब्राह्मणों को मारकर, कुमार्ग को सँभालकर, करोड़ों का धन जीत लिया, शङ्कर के क्रोध से वह पाप की कौड़ी हृदय जलाकर जायगी, यह बात आज़माई हुई है, काशी में जितने काँटे (विघ्नकर्ता) हुए हैं उन्होंने अपना किया भर पाया। आज या कल या परसों या अगले दिन- अर्थात् कभी न कभी-ये सब जड़ दिवाली का सा दिया चाटकर जायँगे, अवश्य अपने पाप नष्ट हो जायेंगे। [३२२] कुंकुम रंग सु-अंग जितो, मुखचंद सो चंद से होड़ परी है। बोलत बोल समृद्धि चुवै, अवलोकत सोच बिषाद हरी है। गौरी, कि गंग बिहंगिनि बेष, कि मंजुल मूरति माद भरी है । पेखि सप्रेम पयान समय सब-सोच-बिमोचन छेमकरी है ॥ अर्थ-अङ्ग ने कुङ्कम के रङ्ग को जीत लिया और मुखचन्द्र से चन्द्रमा से होड़ पड़ी (बाज़ी लगी) है। वाणी ऐसी बोलती है, मानो सम्पत्ति चूती है; और देखते ही शोच और दुःख दर हो जाते हैं। गौरी है वा पक्षी के रूप में गङ्गा है, सुन्दर मूर्ति माद से भरी है; चलने के समय प्रीति (प्रेम ) सहित देखती हुई क्षेमकरी सब शोक को हरनेवाली होती है।। शब्दार्थ--छेमकरी (हेमकरी) पक्षी विशेष, मार्ग में उसका दर्शन शुभ माना जाता है। घनाक्षरी [३२३] मंगल की रासि, परमारथ की खानि, जानिल, बिरचि बनाई विधि, केसव बसाई है प्रलय हूँ काल राखी स्लपानि सल पर, मीचु बस नीच साऊ चहत खसाई है ॥ छोडि छितिपाल जो परीछित भये कृपालु, भलो कियो खल को निकाई सो नसाई है । पाठान्तरजाकी जाति।