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कवितावली संग्रहमान

किसी किसी ने लिखा है कि कवितावली में सवैया, झूलना और घनाक्षरी के अतिरिक्त और छन्द नहीं है। परन्तु इसमें कुछ छप्पय भी मिलते हैं। इसी प्रकार कहीं कहीं इसमें कवित्त, घनाक्षरी, सवैया और छप्पय होना लिखा है। वास्तव में झूलना भी इसमें हैं।

कवितावली के संबंध में किसी-किसी का मत है कि वह कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं है। समय-समय पर जो कवित्त तुलसीदास ने कहे और जो समस्यापूर्तियाँ उन्होंने कीं, उन्हीं का संग्रह-मांत्र यह ग्रन्थ है। इसका प्रमाण यह बतलाया जाता है कि कवितावली में, काण्डों के विस्तार में, बहुत असमानता है। यथा-आरण्य और किष्किन्धा एक ही एक छन्द में समाप्त हो गये हैं। परन्तु यदि यह मत ठीक है तो उत्तरकाण्ड को छोड़कर, जिसमें दुनिया भर के विषयों पर कविता है, शेष काण्डों के छन्दों की रचना का कारण-विशेष होना चाहिए। सम्भव है, रामचरित-मानस में यथास्थान रखने के लिए कुछ छन्दों का निर्माण किया गया हो और अच्छे न जान पड़ने से या अन्य किसी कारण से उनका परित्याग कर दिया गया हो। (तुलसीदास ने दोहा आदि में ही रामचरितमानस रचा है।) यह भी सम्भव है कि पहले उन्होंने इसी प्रकार का छोटा रामायण बनाने का सङ्कल्प किया हो और जैसे-जैसे कवित्व-शक्ति बढ़ती गई हो वैसे-वैसे कथा बढ़ते देख रामचरित-मानस का निर्माण कर दिया हो।

कवितावली का निर्माण-काल संवत् १६६६ से १६७१ तक लोगों ने माना है। इसके प्रमाण में यह अवतरण दिया जाता है-'एक तो कराल कलिकाल सूल-मूल तामें, कोढ़ में की खाजु सी सनीचरी है मीन की' इत्यादि। कहा जाता है कि जिस समय यह छन्द कहा गया होगा उस समय शनैश्चर मीन के रहे होंगे। बैजनाथदास ने यह काल संवत् १६३५ से १६३७ तक ठहराया है और लिखा है कि रामचरितमानस के पीछे पहला ग्रन्थ यही बना काशी-नागरीप्रचारिणी सभा के छपाये हुए रामचरित-मानस की भूमिका में यह काल अर्थात् जब शनैश्चर मोन के थे संवत् १६४० से १६४२ तक और संवत् १६६६ से १६७१ तक लिखा है। परन्तु रुद्रबीसी १६६६ से १६७१ तक होने से कवितावली का रचना-काल संवत् १६६६ से १६७१ तक माना है। यदि कवितावली एक संग्रह-मात्र है तो क्या यह सम्भव है कि उसमें के सब छन्दों का रचना-काल वही था जो इस एक कवित्त का रचना-काल (सं० १६३५ से १६३७ तक अथवा १६६६ से ७१ तक) रहा हो? एक कवित्त के काल से संग्रह के समस्त कवितों का रचना-काल निर्धारित नहीं हो सकता। हमें कवितावली के